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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

11/18/2007

अपनी जरूरतें दायरों में ही रखें

अपने लिए कहीं आसरा
ढूढने से अच्छा है
हम ही लोगों के सहारा बन जाएं
किसी से प्यार मांगे
इससे अच्छा है कि
हम लोगों को अपना प्यार लुटाएं
किसी से कुछ पाने की ख्वाहिश
पालने से अच्छा है कि
हम लोगों के हमदर्द बन जाएं
जिन्दगी में सभी हसरतें पूरी नहीं होती
कुछ अपने ही हिस्से का सुख काम करते जाएं
आकाश की लंबाई से अधिक है
चाहतों के आकाश का पैमाना
सोचें दायरों से बाहर हमेशा
पर अपनी जरूरतें
दायरों में ही रखते जाएं
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3 टिप्‍पणियां:

ghughutibasuti ने कहा…

सुन्दर कविता ! परन्तु इसका अनुकर करना बहुत कठिन है ।
घुघूती बासूती

मीनाक्षी ने कहा…

सारगर्भित रचना...घुघुती जी आपने सही कहा बहुत कठिन है लेकिन मेरे विचार में असम्भव नहीं...

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

सही कहा है आपने ! आपके विचार बहुत सुंदर है , वैसे भी जब विचारों की चासनी में घुली हुई कविता सामने हो तो जुवान अपने -आप वाह-वाह ! कहने को विवश हो जाती है . एक कहावत है इस सन्दर्भ में की आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया ......!बहुत सुंदर .

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