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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

8/24/2007

जो नहीं समझें अपने ही शब्द का अर्थ

जो अपने ही बोले शब्द का समझ नहीं पाते अर्थ
वह देवताओं के सात्विक भाव में ही ढूंढते अनर्थ
लिखेंगे गीतों में गालियाँ, शोर को समझें तालियाँ
खामोशी से बैर होता, वाणी से बोलें शब्द व्यर्थ
कान होते हुए बहरे , आंख के रहते हुए अंधे
भाषा और शब्द की सम्मान का क्या समझे अर्थ
अंग्रेजी पढे पर अपशब्दों में होता शक्ति का भ्रम
दूसरे का मजाक बनाएं, अपने दोष से मुहँ छिपाएं
ऐसे लोगों से वार्ता करना होता सदैव व्यर्थ
कहैं दीपक बापू ऐसे लोगों की कभी न सुनो
उपेक्षा के भाव से ही उन्हें हराने में होंगे समर्थ

2 टिप्‍पणियां:

mamta ने कहा…

अरे बाप रे इतनी गूढ़ और नाराजगी भरी कविता।

mamta ने कहा…

वैसे एक तरह से आप सच ही कह रहे है।

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