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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

8/12/2007

दूसरे के दिल और घरों में फ़रिश्ते क्यों ढूंढते हो

हृदय में सूनापन लिए
बाहर तुम चकाचौंध में
प्यार क्यों ढूंढते हो
अपने मन की आँखों को बंद कर
इस भीड़ में कहाँ तुम
सुकून ढूंढते हो


अपनी जुबान से कहे लफ़्ज़ों का
मतलब तुम खुद नहीं जानते
दूसरे के कहे पर अपने दिल की
तसल्ली क्यों ढूंढते हो

हर पल पकाते हो मन में
तुम ख्याली पुलाव
दिल में सपने देखते हुए
उनमें करते हो
अपने बहलाने के लिए
चलते-फिरते खिलौने का चुनाव
कभी खिलौने में इन्सान तो
कभी इन्सान में खिलौना ढूंढते हो

अपने दिल और दिमाग
कर लिए हैं खुदगर्जी के
तंग कमरे में बन्द
अपने मतलब को पूरा करने के
हो गये हो पाबन्द
दूसरे के दिल और घरों में
फ़रिश्ते तुम क्यों ढूंढते हो

जिन्दगी एक अबूझ पहेली है
जो अपने लिए जीते हैं
उन्हें करती है मायूस
जो दूसरे के दिल का करें ख़्याल
अपने हाथों की मेहनत से
परायों को भी कर दें निहाल
उनकी यह सहेली है
तुम अपने ही हाल में
जिन्दगी की इस पहेली
का राज क्यों ढूंढते हो
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1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत उत्तम ख्यालात हैं:

जिन्दगी एक अबूझ पहेली है
जो अपने लिए जीते हैं
उन्हें करती है मायूस
जो दुसरे के दिल का करें ख़्याल
अपने हाथों की मेहनत से
परायों को भी कर दें निहाल


-बढ़िया.

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