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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

8/11/2007

माया के खेल तो बनते-बिगड़ते हैं

गरीब का जीना क्या मरना क्या
अमीर का जीतना क्या हारना क्या
इस जीवन को सहज भाव से वही
बिता पाते हैं
जो इन प्रश्नों से दूर
रह जाते हैं

जिन्दगी एक खेल की तरह है
इसे खिलाड़ी की तरह जियो
दूसरे की रोशनी उधार लेकर
अपने घर के अँधेरे दूर करने की
कोशिश मत करना
अपना कुँआ खुद खोदकर पानी पियो
भौतिक साधनों के अभाव पर
अपने अन्दर इतनी पीडा मत पालो कि
हर पल तुम्हारा ख़ून जलता रहे
ऐसे लोग हंसी के पात्र बन जाते हैं

देखो इस धरती और आकाश की ओर
तुम्हारी साँसों के लिए बहती हवा
बादलों से गिरता पानी
सूर्य बिखेरता अपने ऊर्जा
और अन्न प्रदान करती यह धरती
क्या यह दौलत कम है
जिन्दा रहने के लिए
माया के खेल तो
बनते है बिगड़ते हैं
उसमें हार-जीत पर क्या रोना
दृष्टा बनकर इस ज्ञान और सत्य के
साथ जीते हैं जो लोग
वही मरने से पहले
हमेशा जिन्दा रह पाते हैं
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