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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

6/24/2007

अपने रास्ते खुद बनाओ-कविता

सात समन्दर पार जाकर
सोना बटोरने की चाहत
सभी के मन में होती है
विदेशी शहरों की चकाचौंध में
लोग सजा लेते हैं सपने
बुरे लगते हैं सब अपने
शीशे की तरह चमकती सड़कें
उस पर दौड़ती खूबसूरत कार
गीत और नृत्य से
शराब परोसते हुए बार
उसे देखकर सभी को वहां
बसने के हसरत होती

पर किस्मत के खेल होते हैं निराले
नहीं सोच पाते कई समझ वाले
सोने की खान सब को नहीं मिलती
कुछ लोगों के नसीब खुल जाते
रहने के लिए भव्य और विशाल इमारतें
और चलने के लिए कार और वायुयान
बदनसीबों को अवैध आव्रजन के
आरोप में जेल नसीब होती
---------------------
जाओ वहीं तक
जाती है जहाँ तक तुम्हारी नजर
उन ठिकानों का पता भी न पूछो
जहां नहीं होती क़दर

दिन में सपने देखना नहीं अच्छा
अपनी रात की नींद खोना नहीं अच्छा
किसी के भ्रम में मत आओ
अपने रास्ते खुद बनाओ
अपने कदम तभी बढाओ
जब पता हो अपनी डगर

2 टिप्‍पणियां:

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

कबूतरबाजी के शिकार होकर दुनिया भर की त्रासदी झेलने वालों के लिए अच्छी नसीहत है.

Divine India ने कहा…

अच्छी कविता है…लोगों को इससे कुछ सीखना चाहिए।

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