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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

6/24/2007

भय कोई सोने का सिंहासन नहीं होता

एक भय है
जो भयभीत पर
शासन करता है
जो जितना होता है
ज्यादा भयग्रस्त
उतनी ही निर्भयता की
बात जोर से करता है
जो जितनी निर्भयता की
बात करे
समझो उतना ही डरता है

खोने की कोई जिसे आशंका नहीं
वह हर संकट का सामना
सहजता से करता है

भय का शत्रु है संघर्ष का भाव
जीवन की आत्मा है संघर्ष
जो आगे बढकर जिंदा रहने की
दृढ-इच्छा से ही आता है
जिन्हें 'आराम' की चाह है
भय की चादर ढँक लेती है
सुख सुविधाओं का मोह
उन्हें डरपोक बना दिया करता है

तुम चाहो या नहीं
जिन्दा रहने के लिए
अनवरत संघर्ष करना होगा
भय कोई सोने का सिंहासन नहीं
जिस पर तुम चेन से बैठ सको
'संघर्ष'की मशाल ही कर सकती है
तुम्हारे जीवन में प्रकाश
जिसके अंतर्मन में भय नहीं
वही इंसानों की तरह
अपना जीवन जिया करता है

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