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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

6/22/2007

अख़बार में अच्छी खबर का इन्तजार-कविता

हर सुबह उठाता हूँ
अखबार ताजा समझकर
पर पढने पर लगती है
बासी हर खबर

अखबार के हर प्रष्ठ पर
नजरें दौडाता हूँ
शायद कुछ नया पढने को मिल जाये
ऐसा कुछ हो
जो मन पर छा जाये
पर आता नहीं कुछ नया नजर

ह्त्या, डकैती, और लूट की खबरें
काले मोटे अक्षरों में सुर्ख़ियों में
छपी होती हैं
पात्र और नाम बदले रहते हैं
ऐसा लगता है मैंने पढी है
पहले भी कहीं यह खबर

बडे नाम वालों के बडे बयां
कुछ छोटे नाम वालों को
बडे बनाते बयां
समाज सेवा और जन कल्याण के
दावों की लंबी-चौड़ी सूची
सोचता हूँ कि कितनी मनगढ़त
और कितनी सत्य के निकट होगी खबर

मन को ललचाते, बहलाते और फुसलाते
विज्ञापनों का झुंड
सामने आ ही जाता है
चाहे बचाओ जितनी नज़र
विज्ञापन में वर्णित वस्तुओं के
बेचने के लिए
समर्थन देती छपती है एक खबर

सोचता हूँ कि अखबार न पढूं
पर बरसों पुरानी आदतें
ऐसे ही नहीं जातीं
भले ही मजा नहीं आता
फिर भी दौडा ही लेता हूँ
सरसरी नज़र
शायद कभी छपे अच्छी खबर

1 टिप्पणी:

अफ़लातून ने कहा…

हर विज्ञापन के पीछे छुपे झूठ को भी देखते होंगे । साधुवाद ।

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