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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

6/20/2007

खुली हवा में उड़ने की चाहत

अपनी हंसी से किसी को
अत्यधिक पीडा पहुंचा सकते हो
पर अपनी पीडा को
तुम हंसी में नहीं बदल सकते हो
तुम्हारे घर की अलमारी में
तमाम किताबों का संग्रह
तुम्हारे मन में
ज्ञान की भूख को दर्शाता है
पर तुम्हारा दिमाग
तुम्हें झमेलों में उलझाता है
तुम एक पंक्ति भी
नहीं पढ़ सकते
तुम्हारे मन में चलता है अंतर्द्वंद
पीडा भोगते हो
पर उसे समझ नहीं सकते
तुम्हारे अन्दर है
आजादी से उड़ने की चाहत
पर अपनी जरूरतों की
गुलामी तुम छोड़ नहीं सकते हो
खुली हवा में सांस लेने को
व्यग्र होता है मन पर
ख्यालों के तंग दायरों से
बाहर नहीं निकल सकते हो
सारा जहाँ देखने की ख्वाहिश
पलती हैं मन में
पर जहां तक जाती है नज़र
तुम उससे आगे चल नहीं सकते हो
एक बार मन को आजाद करके देखो
जब चाह हो हंस लो
जब जिज्ञासा जगे कुछ पढ़ लो
अपने विचारों को आजाद रखो
चलते जाओ
तुम अपनी नियति
बदल भी सकते हो नहीं भी
पर तुम अपनी नीयत बदल सकते हो
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