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3/01/2010

अपना अपना दाव-हिन्दी व्यंग्य कवितायें (apna apna daav-hindi satire poem)

अंधों की तरह रेवड़ियां बांटने का
चलन अब आंख वालों में भी हो गया है।
कहीं पुजते दौलतमंद
कहीं सजते ऊंचे ओहदे वाले
कहीं जमते बाजुओं में दम वाले
तो कहीं उनके चाटुकार चमकते हैं
लोगों के हैं अपने अपने दाव
उजले नकाब पहनने पर हैं आमदा
क्योंकि चरित्र सभी का खो गया है।
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सम्मान बेचने वाले ने
एक कवि से कहा
‘कुछ जेब ढीली करो तो
हमसे सम्मान पाओ।
आजकल सब बिकता है बाजार में
शब्दों से खाली वाह वाह मिलती है,
कविता कागज पर लिखकर
पैसा खर्च करने की बजाय
हमारी जेब में पहुंचाओ।
कुछ अपना कुछ हमारा सम्मान बढ़ाओ।’
कवि ने कहा
‘पैसा होता तो कवितायें क्यों लिखता,
अभाव न होते तो कवि कैसे दिखता,
सम्मान खरीदने की ताकत होती
तो कवितायें भी खरीद कर लाता,
सम्मान के लिये सजाता,
फिर तुम जैसे तुच्छ प्राणी की
शरण क्यों कर लेता,
किसी बड़े आदमी पर चढ़ाता दाम
जो बड़ा ही सम्मान देता।
तुम सम्मान के छोटे सौदागर हो
अपने सम्मान को बड़ा न बताओ।
गली मोहल्ले के कवियों पर
अपना दाव लगाने से अच्छा है
अपना प्रस्ताव कविता के बाजार में
कवियों जैसे दिखने वालों को समझाओ।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

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1 टिप्पणी:

Ashutosh ने कहा…

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