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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

4/03/2017

सेवक सिंहासन पर विराज स्वामी हो जाते-दीपकबापूवाणी (singhasan par Sewak Swami Ho jate-DeepakBapuWani

अपनी राह चलें यह मति नहीं है, बोलते बहुत पर सोच की तेज गति नहीं है।
दीपकबापू’  बुद्धि खर्च करते निंदा पर, संपदा के सभी पर प्रशंसा पति नहीं है।।
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चंद पल में इंसान अपने भाव बदलते हैं, डरकर विश्वास की नाव बदलते हैं।
दीपकबापूजिंदगी के खिलाड़ी बहुत हैं, सभी पैंच से पैदल दाव बदलते हैं।।
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नाकाम इंसान बहानों का रस पिलाता है, जाति धर्म के सहारे हाथ पांव हिलाता है।
दीपकबापूअपने मतलब में सदा फंसा, ज़माने के दर्द में झूठी हमदर्दी मिलाता है।।
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चाहत के समंदर में बहुत गोते लगाये, जिन्हें हाथ से दिये मोती सभी रोते पाये।
दीपकबापूगौर से देखते खाली हाथ, परायी कामना का खेत मुफ्त जोते आये।
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इंसान की पहचान उसके इरादे हैं, कोई चालाक खिलाड़ी कोई सीदे प्यादे हैं।
दीपकबापूसौदागर करते चतुराई, बेबस मन सूंघता चारे जैसे झूठे वादे हैं।।
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सेवक सिंहासन पर विराज स्वामी हो जाते, कर्तव्य भूल अधिकार में खो जाते।
दीपकबापूजनकल्याण के व्यापार में लगे, बड़ी कीमत पर बड़े सौदे हो जाते।।
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स्वयं करें नहीं दूजे से चाहें अपनी आस, स्वयं खाली दूसरें में ढूंढते देव का वास।
दीपंकबापूप्रचार से खड़े हैं बड़े बरगदकभी फल देते ही छाया जैसे घास।।
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हृदय में भाव नहीं सामने चित्र धरे हैं, मतलबपरस्ती में ही फंसे मित्र परे हैं।
दीपकबापूगंदगी में ढूंढते रहें सुगंध, बंद नासिका मुंह से जो इत्र चरे हैं।।
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अल्पधन होने का दर्द भी कम होता, भीख की तरह मदद देने का गम होता।
दीपकबापूमरे दिल के अमीर बने हैं, राजस्व लूट में भी चक्षु नहीं नम होता।।
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राजकाज की समझ कभी पायें, गद्दी चढ़ने के लिये दिखाते कलायें।
दीपकबापू’  जब से लोग आम हुए हैं, वादे घोलकर चालाक रस बनायें।।
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कौये लूट लेते मोती भले खायें नहीं, सोचते बेबस हंस चले जायें कहीं।
दीपकबापूगिरगिट मित्र बनाने लगे, डरते वफा का रंग भले पायें नहीं।।
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