अपनी राह चलें यह मति नहीं है, बोलते बहुत
पर
सोच
की
तेज
गति
नहीं
है।
‘दीपकबापू’ बुद्धि खर्च करते निंदा पर, संपदा के
सभी
पर
प्रशंसा
पति
नहीं
है।।
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चंद पल में इंसान अपने भाव बदलते हैं, डरकर विश्वास
की
नाव
बदलते
हैं।
‘दीपकबापू’
जिंदगी
के
खिलाड़ी
बहुत
हैं,
सभी
पैंच
से
पैदल
दाव
बदलते
हैं।।
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नाकाम इंसान बहानों का रस पिलाता है, जाति धर्म
के
सहारे
हाथ
पांव
हिलाता
है।
‘दीपकबापू’
अपने
मतलब
में
सदा
फंसा,
ज़माने
के
दर्द
में
झूठी
हमदर्दी
मिलाता
है।।
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चाहत के समंदर में बहुत गोते लगाये, जिन्हें हाथ
से
दिये
मोती
सभी
रोते
पाये।
‘दीपकबापू’
गौर
से
देखते
खाली
हाथ,
परायी
कामना
का
खेत
मुफ्त
जोते
आये।
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इंसान की पहचान उसके इरादे हैं, कोई चालाक
खिलाड़ी
कोई
सीदे
प्यादे
हैं।
‘दीपकबापू’
सौदागर
करते
चतुराई,
बेबस
मन
सूंघता
चारे
जैसे
झूठे
वादे
हैं।।
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सेवक सिंहासन पर विराज स्वामी हो जाते, कर्तव्य भूल
अधिकार
में
खो
जाते।
‘दीपकबापू’
जनकल्याण
के
व्यापार
में
लगे,
बड़ी
कीमत
पर
बड़े
सौदे
हो
जाते।।
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स्वयं करें नहीं दूजे से चाहें अपनी आस, स्वयं खाली
दूसरें
में
ढूंढते
देव
का
वास।
‘दीपंकबापू’
प्रचार
से
खड़े
हैं
बड़े
बरगद, कभी न फल देते न ही छाया जैसे घास।।
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हृदय में भाव नहीं सामने चित्र धरे हैं, मतलबपरस्ती में
ही
फंसे
मित्र
परे
हैं।
‘दीपकबापू’
गंदगी
में
ढूंढते
रहें
सुगंध,
बंद
नासिका
मुंह
से
जो
इत्र
चरे
हैं।।
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अल्पधन होने का दर्द भी कम होता, भीख की
तरह
मदद
देने
का
गम
होता।
‘दीपकबापू’
मरे
दिल
के
अमीर
बने
हैं,
राजस्व
लूट
में
भी
चक्षु
नहीं
नम
होता।।
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राजकाज की समझ कभी न पायें, गद्दी चढ़ने
के
लिये
दिखाते
कलायें।
‘दीपकबापू’ जब से लोग आम हुए हैं, वादे घोलकर
चालाक
रस
बनायें।।
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कौये लूट लेते मोती भले खायें नहीं, सोचते बेबस
हंस
चले
जायें
कहीं।
‘दीपकबापू’
गिरगिट
मित्र
बनाने
लगे,
डरते
वफा
का
रंग
भले
पायें
नहीं।।
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