जिंदगी के मजे
हर कोई लेता
राजा हो या बंजारा।
कहें दीपकबापू
रंगे पत्थर से अच्छा लगे
खेत का नज़ारा।।
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हिन्दी क्षणिका
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असली नायकों का त्याग
अभिनय के बाज़ार में
बिकता है।
नाटकीयता के भाव से
दिल का जज़्बात
सौदे में टिकता है।
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कोई इतना बता देता
दिल से दिल कहां मिलते हैं
हम भी चले जाते।
सभी को प्रेम से
अपने गले लगाते।
रोने वाले किराये पर भी
जब मिल जाते हैं।
दर्द के सौदागरों के
चेहरे खिल जाते हैं।
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अक्लमंद कहलाये
जब सुविधाओं ने
दबंग बनाया।
छिन गयी अब
डर के स्वांग से
स्वयं को अपंग बनाया।
अभिव्यक्ति पर बंधन का
वह शोर मचाते हैं।
कहें दीपक बापू
डंडे झंडे हाथ में
खुद ही पांव से बांधकर रस्सी
आजादी का जोर लगाते हैं।
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महल की रोशनी
बस्ती के अंधेरे पर
सवाल करना मना है।
बेबस पर दबंग का
मुक्का तना है।
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हाथ उसने
मांगने के लिये नहीं दिये हैं।
चलता रह जिंदगी में
पांव उसने घर में
टांगने के लिये नहीं दिये हैं।
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मन में लालचों की
लड़ती हुई फौज है।
कहें दीपकबापू खाली हाथों में
खेलती मौज है।
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मन ने पंख लगा लिये
आजादी से उड़ जाता है।
कहें दीपकबापू रीतियों के बोझ में
कौन खुशी से जुड़ पाता है।
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वह लोग हमें भूल गये
फिर भी हमारी याद में बसे हैं।
दीपकबापू न जाने सोच के दायरे
बहुत बड़े कहें या कसे हैं।
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