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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

9/25/2016

जमीन पर अन्न बिछा सोने जैसा फिर भी आदमी चाहे आकाश का तारा-दीपकबापूवाणी (Zamin par anna bicha sone jaisa aadmi chahe akash ka tara-DeepakBapuWani)

बेदर्दी तो हमने अपने साथ की थी जो उनका साथ निभाया।
बेदर्दोंमें अपना दिल हमेशा जज़्बातों से खाली ही दिखाया।।
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सहायकों का जमघट लगा है, फिर भी कमजोर ही ठगा है।
फुर्सत के दोस्त बहुत बन जाते पर नहीं कोई उनमें सगा है।।
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उत्साह से भरें प्रातः की शीतल हवा, मन ढले रात के अंधेरे में।
जोगी आनंद ले साधना से, रोगी भटके दर दर दवा के फेरे में।
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प्रेम के रिश्ते तोड़ने में कभी नुस्खे आजमाये नहीं जाते।
दिल में तड़प की गुंजायश होती, भाव जमाये नहीं जाते।।
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मौजूद नहीं धरती पर उस जन्नत के ख्वाब सभी देख रहे हैं।
पीर दरबार में देते हाजिरी कातिल खंजर पर मत्था टेके रहे हैं।।
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पत्थरों पर नाम खुदवाकर अमर होने की ख्वाहिश बढ़ जाती है।
पैसे से कमअक्लों पर अक्लमंद दिखनें की ख्वाहिश बढ़ जाती है।
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जमीन पर अन्न बिछा सोने जैसा फिर भी आदमी चाहे आकाश का तारा।
रोटी से पेट भरकर नहीं संतोष, दिल हीरे जवाहरात की चाहत का मारा।।
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अपना मन बहलाने के लिये दर दर भटक रहे हैं।
दाम खर्च करते हुए भी बोरियत में अटक रहे हैं।
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अपने सपनों का बोझ पराये कंधे पर हमेशा टिकाते हैं।
नाकामी पर रोयें कामयाबी पर अपनी ताकत दिखाते हैं।
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हर जगह लगते भलाई के मेले, फिर भी परेशान लोग रहें अकेले।
‘दीपकबापू’ जज़्बात बन गये सौदा, दाम चुकाकर चाहे जितना खेले।।
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