प्रतिदिन लग रहा आतंक का दाग, प्रचारक भी पाते विज्ञापन में भाग।
‘दीपकबापू’ बहलने का ढूंढते बहाना, लोग मांगें श्रृंगार या रक्त राग।।
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भ्रष्टाचार से जमकर जंग जारी है, शिष्टाचार से भी भागीदारी है।
‘दीपकबापू’ भरमाने में माहिर, नज़र से बचने की कवायद सारी है।
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उपाधियों का यहां बाज़ार लगा है, अयोग्यता ने प्रतिष्ठा को ठगा है।
‘दीपकबापू’ अशिक्षित रहे ईमानदार, शिक्षितों के शब्दकोष में दगा है।।
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धर्म प्रचार पर चल रहा संग्राम, एक सर्वशक्तिमान रखे अनेक नाम।
‘दीपकबापू’ उपदेशों का करें धंधा, शब्द बेचकर भरते जेब में दाम।।
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मनुष्यों के होते भिन्न स्वभाव, प्यासे को दे पानी कोई करे घाव।
‘दीपकबापू’ कभी रंग कभी बेरंग, संसार मे दिखे दृष्टि जैसा भाव।।
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मौके का सभी फायदा उठाते, न मिले तो विरोध में कायदा जुटाते।
‘दीपकबापू’ काम की नीयत नहीं, प्रतिष्ठा के लिये सभी वादा लुटाते।।
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