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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

7/07/2016

अनुभूतियों के जंगल-हिन्दी व्यंग्य कविता(Anubhutiyon ke Jungle-Hindi Poem)


गणित के खेल में
शब्द कहां टिकते हैं।

मधुर वाणी का
सम्मान नहीं हो सकता
जहां शोर के स्वर बिकते हैं।

कहें दीपकबापू रौशनी में
 चुंधिया गयी आंखें
राख हो चुकी संवदेनाओं में
अनुभूतियों के जंगल
वीरान दिखते हैं।
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