भारतीय प्रचार माध्यमों को संवेदनशील मामलों में अक्सर तालिबान का महत्व देने की आदत है। जब कहीं देश में कहीं स्त्रियों के साथ बलात्कार, मारपीट या अन्य घटना होती है तब हमारे प्रचार माध्यम तालिबानी प्रकार की सजा देने की मांग करते हुए अनेक लोगों को दिखाकर अपने संवेदनशील होने का प्रमाणपत्र जुटाते हैं। उद्घोषक कहते हैं कि ‘‘आपका मतलब है कि तालिबानी तरह की सजा देना चाहिये।’
यह इस बात का प्रमाण है कि हमारे अध्यात्म ग्रंथों तथा दार्शनिक स्मृतियों का ज्ञान हमारे कथित बुद्धिजीवियों ने भुला दिया है। जब समाज में कठोरता पूर्वक शासन करने की बात आती है तो उनको हिटलर, मुसोलनी और चीन जैसे तानाशाह महान दिखते हैं या वह फिर तालिबान के तौरतरीकों में वह शांति ढूंढते हैं। इन लोगों को यह पता नहीं है कि जिन तालिबानों की वह बात करते हैं उनका प्रचार शायद कुछ भी हो वह उल्टे पीड़ित महिलाओं को ही दंड देते हैं। ऐसे अनेक समाचार आते रहते हैं। देश के वह बुद्धिजीवी जो अब तक अखबारों और टीवी चैनलों पर स्त्रियों के प्रति अपराध पर कठोर सजा देने के लिये रोये जाते हैं वह भारतीय अध्यात्म ग्रंथों से बहुत दूर हैं। उनको यह मालुम नहीं है कि न्याय और दंड के जो विधान हमारी प्राचीन राज्य
प्रणालियों में रहे हैं वह इतने कठोर हैं कि मनुष्य अपराध करने की सोच भी नहीं सकता। दरअसल अंग्रेज यहां से चले गये पर अपनी संस्कृति और शिक्षा इस तरह इस देश में छोड़ गये कि उनके अनुज ही अब हमारे सिर पर सवार हो गये हैं। उनके यह अनुज भारत के भूतकाल को केवल भूतों और सांपों से संपन्न मानते हैं और विदेशी अखबारों और टीवी चैनलों से प्रेरणा लेकर देश के भौतिक विकास का अद्भुत सपना देखते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि हमारे देश की प्रबंध व्यवस्था में छिद्रो की वजह से समाज का वातावरण बिगड़ा है। ऐसा नहीं है कि कानून में कोई कमी है पर उनको लागू करने वाली संस्थाओं की कार्यप्रणाली में प्रबंधकीय दोष हैं जिनकी वजह से हालत बदतर होते गये हैं।
प्रणालियों में रहे हैं वह इतने कठोर हैं कि मनुष्य अपराध करने की सोच भी नहीं सकता। दरअसल अंग्रेज यहां से चले गये पर अपनी संस्कृति और शिक्षा इस तरह इस देश में छोड़ गये कि उनके अनुज ही अब हमारे सिर पर सवार हो गये हैं। उनके यह अनुज भारत के भूतकाल को केवल भूतों और सांपों से संपन्न मानते हैं और विदेशी अखबारों और टीवी चैनलों से प्रेरणा लेकर देश के भौतिक विकास का अद्भुत सपना देखते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि हमारे देश की प्रबंध व्यवस्था में छिद्रो की वजह से समाज का वातावरण बिगड़ा है। ऐसा नहीं है कि कानून में कोई कमी है पर उनको लागू करने वाली संस्थाओं की कार्यप्रणाली में प्रबंधकीय दोष हैं जिनकी वजह से हालत बदतर होते गये हैं।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
योऽकामां दूषयेत्कन्यां स सद्यो वधमर्हति।
सकामां दूष्येस्तुल्यो न वधं प्रापनुयान्नरः।।
योऽकामां दूषयेत्कन्यां स सद्यो वधमर्हति।
सकामां दूष्येस्तुल्यो न वधं प्रापनुयान्नरः।।
हिन्दी में भावार्थ-अगर कोई मनुष्य किसी कन्या से उसकी इच्छा के विपरीत बलात् संभोग करता है तो उसे तत्काल मृत्युदंड दिया जाना चाहिए। अगर कोई कन्या की इच्छा से संभोग करता है तो भी उसे मृत्यु दंड न देकर कोई दूसरा दंड अवश्य देना चाहिए।
सकामा्र दूष्येस्तुल्यो नांगुलिच्छेदमाप्नुयात्।
द्विशतं तु दमं दाप्यः प्रेसङ्गविनिवृत्तये।।
द्विशतं तु दमं दाप्यः प्रेसङ्गविनिवृत्तये।।
हिन्दी में भावार्थ-यदि कोई मनुष्य स्त्री की इच्छा होने पर भी उससे संभोग करता है तो उसे भी दंडित करना चाहिए।
स्त्रियां स्पृशेद्देशे यः स्पृष्टो वा मर्थयेन्तथा।
परस्परस्यानृमते सर्व संग्रहणं स्मृतम्।।
हिन्दी में भावार्थ-दूसरे की स्त्री के अंगों को छूने का सुख उठाना भी एक तरह से अपराध है।परस्परस्यानृमते सर्व संग्रहणं स्मृतम्।।
हमारे देश में कथित आर्थिक उदारीकरण के चलते जहां समाज का बाह्य रूप अत्यंत आकर्षक दिख रहा है वहीं आंतरिक रूप भयानक होता जा रहा है। सड़कों पर चमचमाती बसें, कार तथा मोटर सायकलें, शहरों में छोटी दुकानों की जगह बड़े बड़े संगठित बाज़ार के साथ सड़कों के किनारे बने छोटे मकानों की जगह बड़ी बड़ी इमारतें भले ही देश का चमकदार रूप दिखाती हैं बढ़ती हुई बलात्कार, हत्या, आत्महत्या तथा भ्रष्टाचार की घटनायें इस बात का प्रमाण है कि आर्थिक संपन्नता ने हमारे समाज को मानसिक रूप से दिवालिया बना दिया है। विकास दर भले ही बढ़ी हो पर परिवार तथा समाज न केवल आर्थिक वरन मानसिक रूप से भी अस्थिर हो गये हैं। सुविधाओं के लिये वीरतापूर्वक जूझने वाले लोग सामाजिक बदलावों में कायरतापूर्वक व्यवहार कर रहे हैं। वह लोग समाज के लिये रक्षा करते हुए क्या वीरता दिखायेंगे जो अपनी सुविधाओं खोने के भय से ग्रसित हैं। देश के बड़े शहरों के बुद्धिजीवी अपनी पॉश कालोनियों में संपूर्ण समाज का दर्शन करने का दावा करते हैं पर उनको मालुम नहीं कि छोटे शहरों के लोगों का संघर्ष उनसे अलग है।
आज के नवीनतम आर्थिकयुग में महिलाओं पर न केवल घर संभालने का जिम्मा पहले की भांति रहता ही है बल्कि उन पर बाहर से कमाने बोझ भी आ पड़ा है। इतना ही नहीं हमारे देश में कॉलोनियां तो बहुत बन गयी हैं पर उनके पार्क कूड़ेदानों के लिये हो गये हैं। घूमने फिरने के लिये लोगों को अपने घर से बहुत दूर जाने के लिये बाध्य होना पड़ता है। ऐसे में सड़कों पर इंसानों के वेश में राक्षसों से सामना होता है तो उनके लिये मुश्किल होती है। छेड़छाड़ की घटनायें तो आम बात हैं। गाड़ियों पर चलती बालिकाओं को मोटरसाइकिलों पर चल रहे निकम्मे लड़कों से अक्सर जूझना पड़ता है। यह सब इसलिये कि समाज में यह धारणा बन गयी है कि कानून को पैसे के इशारे पर नचाया जा सकता है। कहने का अभिप्राय यह है कि हम यहां संविधान के कमजोर होने की बात नहीं मान सकते बल्कि हमारी चर्चा का मुख्य विषय उन प्रबंधकीय संस्थाओें की कार्यकुशलता पर होना चाहिये जिन पर समाज में शांति तथा सद्भावना बनाये रखने का है। स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराध अत्यंत खतरनाक विषय हैं। खासतौर से जब हमारे देश में कन्या भ्रुण हत्या फैशन की तरह चलती रही हो। बलात्कार की घटनायें उन लोगों के लिये चिंता का विषय हो सकती हैं जो लाड़लियों के पितृत्व में सुख देखते हैं। वैसे ही हमारा भारत लड़के और लड़कियों के अनुपात कम होने की भयावह समस्या को झेल रहा है।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप
ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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