देश में विदेश से तेज गाड़ियां चलाने वालों को सतर्कता से चलाने की सलाह देने की बजाय उन्हें यह समझाने की आवश्यकता है कि यहां सड़कों पर गरीब भी विचरते हैं। संदर्भ है कि दिल्ली में एक 309 किलोमीटर तक चलने वाली गाड़ी के दुर्घटनाग्रस्त होने का, जिसमें चालक अमीर परिवार के एक युवक की मौत हो गयी तो उसकी टक्कर से एक साइकिल चालक गंभीर रूप से घायल होकर अस्पताल में दाखिल है! उस पर टीवी चैनल वाले दुःखी हैं। एक चैनल वाले ने बताया कि कैसे उस विदेशी गाड़ी के भारत आगमन पर उसकी विशेषताओं का वर्णन उसने किया था। तय बात है कि यह वर्णन प्रायोजित रहा होगा और नवधनाढ्यों को प्रभावित करने के लिये उसे रचा गया होगा। वैसे चैनल वालों का दुःख कार के दुर्घटनाग्रस्त होने पर अधिक लग रहा था कार चालक या साइकिल सवार के लिये नहीं।
अब उस गाड़ी के दुर्घटनाग्रस्त होने का कारण पहले सड़क के विभाजक और बाद में बिजली के खंभे से टकराना बताया गया है। बाहर तेज रफ्तार ने इस देश के एक युवक की मौत दर्दनाक है। अब डेढ़ करोड़ (कुछ इसे ढाई करोड़ की भी बता रहे हैं) की कार कबाड़े में बदल गयी तो इसमें दोष किसका है? उस गरीब साइकिल वाले-हमारे यहां साइकिल अब गरीबी का प्रतीक हो गयी है-का भी नहीं है जो अपने काम से कहीं जा रहा होगा। कार चालक और साइकिल सवार दोनों ही उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपने प्रयासों से कुछ अर्जन करते हैं और यकीनन यह उनके परिवारों के लिये कष्टदायक है।
मूल बात महंगी और तेज दौड़ने वाली गाड़ियों की है। पश्चिमी देशों में गरीब या गरीबी नहीं है यह सोचना गलत है पर जनसंख्या में गरीबी का अनुपात हमारे यहां आज भी अधिक है। न्युयार्क, लंदन, पेरिस और बर्लिन की सड़कों पर इस तरह गरीब संभवतः सायकल नहीं चलाते होंगे। वहां की सड़कें भी इतनी संकड़ी नहीं होती होंगी। हमने तो सुना है कि हम जिन विकसित देशों की राह पर चल रहे हैं वहां अखबार और दूध बांटने वाले भी कार में चलते हैं। कहीं कहीं तो दूध की पाईप लाईने पानी की तरह लगी हैं। अपने यहां ऐसा कहां है। सुबह दूध देने वाले अधिकतर साइकिल पर चलते हैं-यह अलग बात है कि कुछ लोग अब मोटर साइकिल पर करने लगे हैं-अखबार साइकिल पर बांटा जाता है। दूध वाले तो अधिक कमाई का प्रबंध कर सकते हैं पर अखबार वालों के लिये यह संभव नहीं है। फिर सब्जी, फल तथा चादरें बेचने वाले भी बिचारे साइकिल चलाते हैं। कई जगह तो महिलायें और पुरुष अपने काम के लिये एकदम सुबह पैदल ही घर से निकलते हैं-यहां हम पार्क की सैर करने वालों की बात नहीं कर रहे।
अधिक क्या कहें। आस्ट्रेलिया हमसे बड़ा देश है पर उसकी जितनी आबादी है उतनी तो हमारे यहां हर साल बढ़ जाती है। मतलब हम वहां जैसी आजादी अपनी सड़कों पर नहीं प्राप्त कर सकते। देश आर्थिक रूप से तरक्की कर रहा है पर इसका विश्लेषण करना होगा कि उसमें सत्यता कितनी है। किसी के पास पहले सौ रुपये थे और अब दस हजार है तो यह विकास दिखता है पर हमें उसके खर्च का अनुपात भी देखना होगा। पहले सौ रुपये से घर चल जाता था और अब दस हजार खर्च कर भी कोई खुश नहीं है। आजादी के समय अपने देश की जनसंख्या 36 करोड़ थी। उस समय अगर अमीर एक करोड़ होंगे तो अब 121 करोड़ की जनसंख्या पांच करोड़ से ज्यादा नहीं होंगे। याद रखने की बात यह है कि आजादी से पहले 35 करोड़ गरीब लोग थे तो अब 116 करोड़ हैं। सड़कंे तो उतनी ही हैं। कई जगह तो यह सुनने को मिलते हैं कि अतिक्रमण के चलते वह सिकुड़ गयी हैं। ऐसे में रफ्तार के खतरे बहुत हैं, चाहे वह विकास के हों या विनाश के।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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