समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

2/11/2012

अपराध में कन्याओं का बढ़ता उपयोग चिंता का विषय-हिन्दी लेख (apradh mein kanyaon ka upyog chinta ka vishay-hindi lekh or article on crime agains woman or women)

             ग्वालियर शहर (Gwalior city of madhya pradesh or mp) के अखबारों में दो दिन लगातार दो ऐसी खबरी छपी जो समाज में बढ़ रहे आर्थिक तनाव की तरफ इंगित तो करती हैं साथ ही लड़कियों का अपराध के लिये उपयोग की बढ़ती प्रवृत्ति की भी चेतावनी देती है। एक दिन एक दस से बारह साल की एक लड़की ने एक विवाह समारोह में महिला की साड़ी पर चटनी गिराकर उसका पर्स उड़ाने की घटना हुई । पर्स में ढाई लाख रुपये से अधिक का सामान था। वहां मौजूद लोगों के देखने और पीछा करने के बावजूद वह फरार हो गयी। दूसरी घटना में इसी आयु वर्ग की लड़की एक आदमी का पर्स चुराते वहां मौजूद लोगों की सतर्कता से पकड़ी गयी।
                आमतौर से बालकों के अपराध करने को अधिक महत्व नहीं दिया जाता है। इतना ही नहीं उनको किसी अपराध में सजा देना भी संभव नहीं है। जिस तरह यह घटनायें पढ़ने में आयीं उससे यह तो कहना कठिन है कि बालउम्र की लड़कियों के अपराध करने की यह पहली घटनायें हैं मगर जिस तरह दो दिन लगातार हुई हैं उससे हम अपराध जगत में बच्चियों का शामिल होने की बढ़ती प्रवृत्ति का संकेत तो मान ही सकते है। आमतौर से लड़कियों से ऐसे अपराध की आशंका नहीं रहती इसलिये उनके पास होने पर कोई भय नहीं रहता पर धीरे धीरे अब यह समाप्त हो जायेगा। जिस उम्र की यह लड़कियां हैं उससे देखकर हम यह अवश्य कह सकते हैं कि इसके लिये कहीं न कहीं उनके माता पिता या किसी परिचित की प्रेरणा तो रही होगी। संभव है कि माता पिता से नहीं तो किसी वरिष्ठ परिचित का प्रशिक्षण भी मिला हो। आखिर अपराध करने वाले पहले अपने स्थान और शिकार की जानकारी लेते हैं। लक्ष्य का पीछा करते हैं। तय बात है कि इन लड़कियों ने यह काम स्वयं नहीं किया होगा अलबत्ता अपनी चपलता से एक बनी बनायी योजना को सही अंजाम तक पहुंचाया और यही बात समाज में लड़कियों के अपराध करने के नये फैशन की संभावना की तरफ संकेत करता है। हमने यहां फैशन शब्द का उपयोग इसलिये किया है कि हमारे यहां सभ्रांत समाज के लिये जीवन जीने का तरीका फैशन पर ही आधारित रहता है। यह स्पष्ट संदेश भी है कि देश में धन का असमान वितरण अब एक खतरनाक विभाजन की तरफ बढ़ रहा है।
                 इधर टीवी पर एक बहस सुनी कि क्या बच्चों में अपराध की बढ़ती अपराध की प्रवृत्ति के लिये उनके माता पिता जिम्मेदार हैं? इस बहस का मूल केंद्र बिन्दू चेन्नई की एक घटना है जिसमें एक शिक्षिका की उसके पंद्रह वर्षीय छात्र ने चाकू के अनेक वार कर हत्या कर दी। इस बहस में कोई हां कह रहा है तो कोई विस्तार से पूरे समाज पर जिम्मा डाल रहा है तो कोई मृत शिक्षिका पर ही पूर्वानुमान न करने का आरोप जड़ रहा है।
दरअसल इन घटनाओं के लिये मनुष्य व्यवहार के सिद्धांतों की बजाय हमें उन स्थितियों की तरफ देखना होगा जो उसे असहज व्यक्तित्त का स्वामी और अपराधी बना रही है। हमारी अब जो सामाजिक व्यवस्था है वह राजकीय सहायता पर निर्भर हो गयी है। स्वतंत्रता के बाद देश में स्वास्थ्य, शिक्षा तथा आर्थिक विपन्नता को दूर करने का जिम्मा पूरी तरह से राज्य ने ले लिया। उसके बाद समाज में अपराध और अपराधी में महिला, पुरुष, अवर्ण सवर्ण, अल्प संख्यक धर्म तथा बहुसंख्यक धर्म का भेद स्थापित करने वाले नियम बने। हत्या करना, गाली देना, अभद्र व्यवहार करना अथवा धमकी देना अपराध है पर नियम इस तरह बनाये गये कि यह भेद प्रकट होने लगा। यह मान लिया गया है कि अगर अपराध किसी स्त्री के विरुद्ध हुआ हो तो अपराधी पुरुष ही हो सकता है। स्त्रियों में भी विभाजन हुआ। बहु तो हमेशा ही दयनीय है और सास खतरनाक ही मानी जायेगी। दहेज हिंसा कानून इसलिये बना। अब घरेलु हिंसा कानून बनाया गया। क्या इस देश में सभी महिलायें पुरुषों से सतायी जाती थी। क्या हर बहू दहेज संकट को लेकर अपने घर की दहलीज के बाहर पड़ी रहती थी। मूल बात यह कि चुनाव के समय समाज की ठेकेदारी करने वाले लोगों ने इस बात का प्रयास कभी क्यों नहीं किया कि महिलाओं के प्रति अपराध अधिक न हों? ऐसा न कर उन्होंने ऐसे कानून क्यों बनायें जो भेदात्मक हों। हम पहले ही कह चुके हैं कि हत्या करना, मारपीट करना, गाली देना, अभद्र व्यवहार करना या धमकी देना वैसे ही कानून की दृष्टि से अपराध है तब उसमें इस तरह भेद करने की आवश्यकता क्या थी? हत्या भी दो तरह की हो गयी है एक आतंकवादी हत्या दूसरी आम हत्या। मूल समस्या यह थी कि हम अपनी जांच और कार्यवाही करने वाली एजेंसियों का प्रबंध मजबूत करते। ऐसा तो हुआ नहीं केवल नियम बनाकर वाह वाही लूटी गयी। अनेक तरह के कानून तो बने पर परिणाम यथावत रहे। इसका कारण कहीं न कहीं व्यवस्था में प्रबंध कौशल का अभाव है यह किसी ने स्वीकार नहीं किया। हम आजकल अपराध के प्रति बालकों के मन में जो उत्साह देख रहे हैं वह इसी अभाव का नतीजा है।
          इधर आर्थिक विषमता ने अपराधिक स्वरूपों में भी परिवर्तन किया है। दरअसल शिक्षा, स्वास्थ्य तथा विपन्नता दूर करने का मसलों का भी अब निजीकरण हो गया है और इससे जनसामान्य में अपनी रोटी, रक्षा तथा रोग निवारण को लेकर अनेक संशय महंगाई के कारण पैदा हो गये हैं।
            कच्ची उम्र की लड़कियों का अपराध के लिये उपयोग होना हमारी संवैधानिक तथा समाज व्यवस्था के लिये चिंताजनक हैं पर उससे ज्यादा दर्दनाक हैं। हम नहीं जानते ऐसी अपराधिक घटनायें पहले कितनी हुई हैं और आगे कितनी होंगी, पर इतना तय है कि अभी तक पुरुषों या बालकों की वजह से उनमें वृद्धि संख्या धनात्मक थी और अब वह गुणात्मक हो सकती है। हमारे देश में नारियों की दुर्दशा पहले ही कम नहंी है ऐसे में अपराध करने वाली नारियों के लिये जीवन कितना कष्टकर और नारकीय होगा यह सहजता से अनुमान कर सकते हैं।
         चेन्नई में जिस शिक्षिका की हत्या हुई उसके पूर्वानुमान न करने पर उंगली उठाना अनुचित है पर जन्म दिनों, गृह प्रवशों, धार्मिक अनुष्ठानो तथा शादियों के साथ ही कहीं कहीं गमी में भी अपने वैभव का प्रदर्शन करने में लगे हमारे सभ्रांत समाज की चेतना शक्ति क्षीण होने का प्रमाण तो हम देख ही रहे हैं। देखा जाये तो हमारा सभ्रांत समाज उत्सव मनाने को ही धर्म और संस्कार समझता है। अब नवधनाढ्य समाज तो इतना बावला हो रहा है कि वह प्रस्ताव दिवस, शुभेच्छु दिवस, मित्रता दिवस तथा अन्य अंग्रेजी पर्वों पर भी बाज़ार के प्रचार का शिकार हो रहा है। नव धनसंस्कृति की उपज मॉल आजकल लघु पर्यटन स्थल हो गये है। पेट की भूख सभी को सताती है पर लोभ तो आदमी को हिंसक बना देता है। सभ्रांत वर्ग के आर्थिक दृष्टि से उच्च, उच्च मध्यम तथा मध्यम वर्ग के सदस्य अपनी मस्ती में इतने मस्त रहते हैं कि उनको अंदाज नहीं रहता कि कोई उनको देख रहा है और उनमें कई ऐसे हैं जो अभाव से ग्रसित है और उनसे चिढ़ रहे हैं। कुछ लोभी भी हैं जो हिंसक हो सकते हैं। कहा जाता है कि राजा की रक्षा स्त्री की तरह की जानी चाहिये पर आधुनिक महिला उद्धारक बुद्धिजीवी नारी को अबला मानने पर आपत्ति करते हैं। उसकी रक्षा को राज्य का जिम्मा मानते हैं। नारी की रक्षा का दायित्व उसके परिवार का पुरुष सदस्य ले यह बात ही उन बुद्धिजीवियों को चिढ़ा देती है। इन बुद्धिजीवियों का प्रचार में कितना प्रभाव है कि कुछ लोग अपनी घर की बच्चियों के प्रति भी उन जैसा खुलापन दिखाने लगे हैं। यह अलग बात है कि कुछ अपनी बच्चियों को खुले में अकेले में घूमने देकर उसकी रक्षा करना भूल जाते हैं तो कुछ कच्ची उम्र की लड़कियों को ही ऐसे रास्ते पर चलते देख रहे हैं या स्वयं चला रहे हैं जो अंततः उनके लिये खतरनाक हैं। हम यह किसी नये सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं कर रहे। न यह कह रहे हैं कि समूचा समाज ही अब ऐसी राह पर है पर इतना तय है कि देश में कन्याओं के प्रति अपराध की तरह उनके हाथ से होने वाले अपराधों का ग्राफ बढ़ना अंततः एक बृहद संकट का कारण बनेगा।
             इससे बचने के लिये उपाय करने होंगे। हम यहां अध्यात्म के विषयों को लेना नहीं चाहेंगे मगर श्रीमद्भागवत गीता के गुण ही गुणों में बरतने और इंद्रियों को विषयों में बरतने के सिद्धांत को भूल नही सकते। हमने जिन वस्तुओं या विषयों को बाह्य आकर्षण देखकर अपनाया है उसके परिणामों का विश्लेषण करें तो लगेगा कि उनका अंत दुर्गुणों का ही जनक है। उन वस्तुओं और विषयों का संपर्क इंद्रियों को अंधेरी गुफा में ले जायेगा इसका आभास हमें नहीं है। धन, वैभव, बृहद परिवार तथा संपत्ति का आकर्षण जहां एक इंसान की चेतनाशक्ति के साथ ही उसकी प्राणशक्ति को क्षीण करता है वहीं उनका अभाव दूसरे इंसान की चेतना शक्ति को बढ़ाता है तो रोटी की भूख या वैभव पाने का लोभ उसकी प्राणशक्ति को तब तक के लिये बढ़ाये रखता है जब तक वह उसे उपलब्ध नहीं हो जाती है। इसलिये अपराध, अपराधी और शिकार इन तीनों विषयों पर दृष्टिपात करते हुए घटना पात्रों के नाम, जाति, लिंग या धर्म देखने की बजाय उन प्रवृत्तियों को देखना चाहिए। प्रवृत्ति और निवृत्ति के सिद्धांतों को जाने बिना कोई भी निष्कर्ष पूरा नहीं हो सकता।
वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका

 5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका 
७.ईपत्रिका 
८.जागरण पत्रिका 
९.हिन्दी सरिता पत्रिका

कोई टिप्पणी नहीं:

लोकप्रिय पत्रिकायें

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर