अन्ना हजारे ने स्वयं ही अपने विरोधियों को अवसर दिया है यह कहकर कि शराबियों को पिटाई करना चाहिए। अन्ना भ्रष्टाचारियों को फांसी देने की बात भी करते हैं इसलिये उनको फासीवादी भी कहा जाने लगा है। दरअसल अन्ना ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का नेतृत्व परेशान हाल आमजन के हृदय में एक ऐसा देवता की छवि बना ली है जिससे आशा की जा सकती है। यह छवि भी इसलिये बनी क्योंकि वह महाराष्ट्र के थे और बाहर उन्हें ‘दूर के ढोल सुहावने’ होने का लाभ मिला। सच बात तो यह है कि हम उनके अनशन के दौरान निरंतन उनकी भाव भंगिमा के साथ ही वक्तव्यों का भी अध्ययन करते रहे थे। इस दौरान हमने यह निष्कर्ष निकाला कि वह अनशन और आंदोलन को नारों के सहारे चलाने में महारथी हैं मगर जहां तक समाज को लेकर चिंत्तन का प्रश्न है उसमें अधिक जानकार नहीं है।
बुजुर्ग हैं इसलिये सम्मानीय हैं पर समाज के संचालन में उनकी हर बात को ब्रह्मवाक्य नहीं माना जा सकता। वह बहुत भोले हैं पर अपने अनशन और आंदोलन के अभ्यास का प्रचार में अपने तरीके से उपयोग करने की कला उन्हें खूब आती हैं। वह धन के लोभी नहीं है यह सत्य है पर मान और सम्मान से परे नहीं है। मूल बात यह है कि अपने तर्क को ही अंतिम मानने का भ्रम उनके अंदर है। कम से कम शराबियों के विषय पर उनका बयान तो इसी बात का प्रमाण है।
शराब पीना बुरी बात है यह सभी मानते हैं। फिर भी कुछ लोग पीते हैं। शराब पीने से लीवर खराब होता है पर सभी बीमार पड़ें यह जरूरी नहीं है। जब तक आदमी स्वस्थ है तब तक अपनी देह के साथ खिलवाड़ करता है पर जब बीमारी हमला करती है तो चिकित्सक की एक चेतावनी उसकी आदत को हवा कर देती है। फिर भी कुछ नहीं मानते तो समय से पूर्व काल कवलित हो जाते हैं। अगर श्रीमद्भागवत गीता के संदेश को देखें तो उसके विज्ञान के अनुसार इंद्रियां ही विषयों में आसक्त होती हैं और गुण ही गुणों में बरतते हैं। शराब पीना एक गुण है तो उसके जो दुष्परिणाम है वह भी उसके गुणों का परिचायक ही है। आदमी अगर शराब पी रहा है तो वह उसके परिणामों से बच नहीं सकता। ऐसे में आदमी को शराब के सेवन से बचने की सलाह देनी चाहिए न कि उसकी पिटाई करें। यह तामस बुद्धि है।
किसी भी व्यक्ति के मन में जब यह विचार आता है कि ‘मैं शराब नहीं पीता क्योंकि वह शराब है पर वह पीता है इसलिये बुरा है-यह भाव अहंकार का द्योतक हैं। अन्ना अनेक बार अहंकारवश बात करते हैं। जो लोग शराब नहीं पीते हैं वह यह दावा कैसे करते हैं कि शराब पीने वाले सभी दुष्ट हैं। अन्ना को यह अधिकार किस आधार पर मिल गया है कि वह शराबी को पीटने की बात करें। कुछ शराब पीने वाले भी न पीने वालों को चुनौती देते हुए कहते हैं कि शराब पीना और फिर उसे पचाना बच्चों का खेल नहंी है। अगर किसी ने कभी जिंदगी में शराब नहीं पी तो लोग कह सकते हैं कि वह कमजोर आदमी है शराब पीकर पचा नहीं सकता। अन्ना हजारे सेना में रहे हैं इसलिये यह नहीं लगता कि कभी उन्होंने शराब नहंी पी होगी। कभी शराब के आदी नहीं रहे होंगे और बरसों पहले ही त्यागी हो गये यह हमारा अनुमान है।
जिस तरह हमारे यहां संत लोग अपने प्रवचनों में महिलाओं को लुभाने वाली बातें करते हैं वही अन्ना हजारे भी कर रहे हैं। शराबियों को पीटने की बात से देश में महिलाओं का एक वर्ग प्रसन्न होगा और संभव है कि कभी अपने प्रति जनभाव का दोहन करने का इरादा अन्ना का हुआ तो संभव है कि वह उसे वोट में भी बदल सकते हैं। ऐसा लगता है कि अन्ना अपने शिष्यों के लिये राजनीतिक धरातल बना रहे हैं ताकि शराबी को पीटो नारे का सहारा उन्हें मिले। यहां यह भी बता दें कि अगर उनके चेले सत्ता के शिखर पर पहुंच भी गये शराब पीने से अनेक परिवार बरबाद हैं यह हमें पता है। सच बात तो यह है कि देश में मजदूर वर्ग में गरीबी और तंगहाली का यह सबसे बड़ा कारण भी है। इसके बावजूद शराबियों की पिटाई करने का नुस्खा एक उग्रवादी रवैया है। जो पुरुष शराब पीते हैं उनके परिवार उनसे दुःखी हैं। कुछ उनसे लड़ते हैं, कुछ उनको मारते भी हैं। ऐसी हजारों कहानियां हैं पर सवाल यह है कि कोई दूसरा आदमी बिना मांगे किसी के परिवार का नियंता बने यह भी देश का समाज स्वीकार नहंी करता। आदमी गरीब हो या अमीर मुक्त भाव से जीना चाहता है। अन्ना हजारे समाज के स्वयंभू नेता बनकर यह तय नहीं कर सकते कि आदमी के लिये क्या अच्छा है या क्या बुरा? आदमी दूसरे को हानि न पहुंचाये अगर पहुंचाये तो पीड़ित शिकायत न करे तो किसी भी न्यायाधीश के पास इस बात का अधिकार नहीं है कि वह अकारण दंड विधान का उपयोग करे।
जहां तक अन्ना हजारे के आंदोलन के परिणाममूलक होने का प्रश्न है अब संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा है। इसमें लोकपाल या जनलोकपाल विधेयक पारित होना प्रस्तावित है। उसका स्वरूप ही तय करेगा कि अन्ना हजारे के आंदोलन फलीभूत हुआ कि नहीं। जनलोकपाल प्रस्तावित करने वाले लोगों में अन्ना का नाम नहीं है। उनके सहयोगियों ने उसे रचा है। अन्ना भले हैं पर उनकी विद्वता अप्रमाणिक हैं। अन्ना अपनी छवि बनाये रखने के लिये प्रचार माध्यमों को सामग्री दे रहे हैं। जब मौन थे तब लिखकर बोल रहे थे। उनके ज्ञान की सीमा वहीं पता चल गयी थी। मौन का मतलब इद्रियों के मौन होने से है केवल वाणी का मौन होना नहीं।
हम देश के उन आमजनों को निराश नहीं देखना चाहते जिन्होंने अपनी आशा अन्ना हजारे पर टिकाई है। अलबत्ता यह बता देते हैं कि जिन प्रचार माध्यमों ने अन्ना हजारे के व्यक्तित्व को आकर्षक ढंग से ढोया था वही अब शराब के बयान पर उनके तालिबानी होने की बात कर रहे हैं। अन्ना हजारे शायद हमारे अध्यात्मिक दर्शन का मूल सिद्धांत भी नहीं जानते कि बुराई से घृणा करो बुरे आदमी ने नहीं, बल्कि अपने सात्विक प्रयासों से उसे मार्ग पर ले आओ। पीटना यकीनन सात्विक प्रयास नहीं है। अन्ना हजारे को धीरे धीरे विवादास्पद बनाया जा रहा है। हम जैसे अध्यात्मिक साधकों के लिये तो अन्ना हजारे और समाज दोनों ही अध्ययन का विषय है और इस पर नजर बनाये हुए हैं।
बाबा रामदेव का योग और शराब-----------------------------------------------बाबा रामदेव ने अन्ना के बयान पर टिप्पणी की कि ‘‘शराब पीने वालों को हम कपाल भारतीय के स्ट्रोक लगवाकर उनकी आदतें छुड़ाते हैं उनको पेड़ से बांधकर मारने की आवश्यकता नहीं है।’’सत्य वचन महाराज! हमने अपने अनुभव से देखा है कि अनेक योग साधकों ने इस आदत से छुटकारा पाया है।दिलचस्प बात यह है कि बाबा रामदेव और अन्ना हजारे साहब दोनों ही भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के अगुआ है पर जहां तक क्षमताओं की बात आती है तो एक योगसाधक होने के नाते बाबा रामदेव को अधिक प्रासंगिक मानते हैं। अन्ना हजारे का कोई भी आंदोलन स्थाई परिणाम देने वाला नहीं रहा न रहने वाला है जबकि बाबा रामदेव का योग प्रचार अभियान लंबे समय तक परिणाम बनाये रखने में सहायक होगा यह हमारा दावा है।
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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