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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

1/13/2008

मानसिक अंतर्द्वंदों से मुक्त करता है ध्यान

आदमी के मन में हमेशा द्वंद होता है पर वह उससे भागता है आत्म मंथन नहीं करता और फिर वह बहिर्मुखी होने पर उसे शांति नहीं द्वंद पसंद आता है. कहीं दो व्यक्ति एक दूसरे प्रशंसा करें तो उसका मन नहीं लगता और वही दोनों एक दूसरे को गाली देने लगें तो उसे आनंद आता है उसे वह मनोरंजन समझता है।

यही वजह मनोरंजन के व्यापारी उसके सामने द्वंद परोसते हैं. किसी फिल्म में कोई नायक है तो उसके सामने खलनायक होना आवश्यक है. इसी तरह प्राचीन काल के भी कई नायक और खलनायकों की स्मृतियाँ हमारे जेहन में मौजूद रहती हैं और कभी कहीं कथा सुनने को मिलती है तो उसका आनंद उठाते हैं . अभी हाल ही में अंतर्जाल ब्लोग जगत में भी यही दृष्टिगोचर हुआ. कोई एक ब्लोगरों के लिए पुरस्कार दिया जाना था और उसे चुपचाप दिया जा सकता था पर उसके सामने मेरा ब्लोग पराजित कर प्रस्तुत किया है. मैंने इस पर देखा कि इसकी कोई जरूरत नहीं थी, पर जब मैंने इस लेख को लिखना शुरू किया तो मुझे बरबस यही घटना याद आयी. मुझे असल में पुरस्कार मिलने की कोई परवाह नहीं थी जितना इस बात की कि मेरे ब्लोग को पराजित कैसे किया? फिर एक और ख्याल आया? इससे नाखुश अधिक लोग वहाँ होंगे और क्यों न ऐसी पोस्टें डालीं जाएं कि अपना नाम भी हो और शायद कोई नयी अनुभूति हो. यही हुआ भी मैंने कसकर प्रहार किये और सबसे अधिक हास्य कवितायेँ लिखीं. वह जबरदस्त हिट हुईं. उनके व्युज देखकर मैं आश्चर्य चकित रह गया. आखिर अपने एक वरिष्ठ साथी के कहने पर मैंने अपने कदम वापस खींचने का निर्णय लिया।

जैसे ही में यह लेख लिखने बैठा तो मुझे लगा कि उन ब्लोगरों के सामने कोई विकल्प नहीं था. वह जिन लोगों को पुरस्कार दे रहे थे उनकी प्रशंसा में कोई ब्लोग दिखाने जरूरी थे और पाठक जैसा कि जानते हैं कि उनके सामने मेरे जैसे दिग्गज ब्लोगर का नाम अपने आप में बहुत है. पर बात यह नहीं है. मैंने इस पूरे प्रसंग में बहुत कुछ सीखा क्योंकि मैंने ब्लोग जगत की तथाकथित ताकतों से टक्कर ली वह मेरे आत्मविश्वास को बढाने में ही सहायक हुई. लोगों ने मेरी पोस्ट जिस चाव से पढी वह इस बात का प्रमाण है कि लोगों को द्वंद पसंद है।

मैं अपने शीर्षक भी इस तरह डाल देता था कि वह उस समय चल रहे द्वंद का प्रतिबिंब होता था और लोग उसे पढ़ते थे. कहने को यह भी एक उससे संबधित है पर मैं इस पर ऐसा शीर्षक लगाऊंगा जो उससे संबधित नहीं होगा और यह पोस्ट वैसे हिट नहीं होगी . आखिर आदमी को अपने मानसिक द्वंद से बचने का प्रयास क्यों करना चाहिए? दरअसल आदमी निरंतर कुछ पाना चाहता है और त्यागना कुछ नहीं चाहता. वह अपने अन्दर विचारों के बाद जो विकार उत्पन्न होते हैं उनका विसर्जन नहीं करता।

एक बात जो मैं हमेशा कहता हूँ जैसे हम अपने मुख से कोई चीज ग्रहण करते हैं तो वह गंदगी के रूप में बदल जाती है. मुख जैसी ही इन्द्रियाँ ही हैं कान और आँख और वह भी जो ग्रहण करती हैं वह भी वैसे ही विकार उत्पन करती हैं. हम मुख से ग्रहण की गयी वस्तुओं से बनी गंदगी का विसर्जन करते हैं पर कान और आँख से उत्पान विकार के निष्पादन की कोई कोशिश नहीं करते. इसके निष्कासन का एक ही तरीका है ध्यान।

हम ध्यान चाहे जब और जहाँ कर सकते हैं. घर, आफिस और यात्रा में जहाँ भी बैठने का अवसर मिले आँखें बंद कर भृकुटी पर ध्यान लगाएं, और कुछ देर में अनुभव करें कि हमारे को राहत अनुभव हो रही है. यह कोई कठिन प्रक्रिया नहीं है, पर लोग अपने सुख का एक पल भी नहीं खोना चाहते और यही दुख का कारण बनता है. ध्यान करते समय कुछ देर भगवान् श्रीकृष्ण की मूर्ति भी अपने मन में रख सकते हैं पर जल्द ही हमें उसे शून्य में ले जाना होगा. ध्यान करते समय अपने शरीर के प्रत्येक अंग को मन की आँखों से देखते जाएं. इससे जो शक्ति मिलती हैं वह अगले काम के लिए पर्याप्त होती है और उसके दौरान कोई व्यवधान आये तो उसका आघात हमारे हृदय पर नहीं पड़ता।
मनोरंजन के व्यापारी आजकल टीवी पर अपने गीत और गजल के गानों में गायकों के बीच के द्वंद कराकर लोगों का ध्यान आकर्षित करते हैं. अगर आप सामान्य ढंग से संगीत सुनने का आनंद उठाने वाली ढूंढ़ना चाहें तो कम मिलेंगे जबकि ऐसे अंतर्द्वंदों के साथ उसका आनंद उठाने वालों की कमी नहीं है हांलांकि वह बहुत तनाव पैदा करता है और संगीत सुनने से होने वाले लाभ उससे नहीं मिलते. ऐसी हालत में अपने मन पर मनोरंजन का साधन भी ध्यान हो सकता है अगर आप करके देखें. ध्यान में दौरान आने वाले विचारों से घबडाये नहीं क्योंकि वह विकार हैं जो भस्म होने आते हैं. शेष अगले अंक में।

1 टिप्पणी:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

दीपक जी,सब से पहले तो आभार व्यक्त करना चाहूँगा।कि पुरस्कार से संम्बधित समस्या का निदान हो गया।दूसरा आप का ध्यान के बारे में आलेख पढ कर काफि ज्ञानवर्धन हुआ।अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा।

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