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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/13/2007

मतलब के रिश्ते

जब काम था वह रोज
हमारे गरीबखाने पर आये
अब उन्हें हमें याद करने की
फुरसत भी नहीं मिलती
गुजरे पलों की उन्हें कौन याद दिलाये
हम डरते हैं कि
कहीं याद दिलाने पर
उन्हें अपने कमजोर पल न सताने लगें
वह यह सोचकर मिलने से
बहुत घबडाते हैं कि
हम उन्हें अपनी पुरानी असलियत का
कहीं आइना न दिखाने लगें
दूरियां है कि बढती जाएँ
टूटे-बिखरे रिश्तों को फिर जोड़ना
इतना आसान नहीं जितना लगता है
बात पहले यहीं अटकती हैं कि
आगे पहले कब और क्यों आये
अच्छा है मतलब से बने
रिश्तों को भूल ही जाएँ
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3 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

सही है ऐसे रिश्तों को भूल ही जायें. बेहतरीन!!!

बेनामी ने कहा…

bahut badiya likha hai. shukriya

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

बहुत सुंदर संयोजन किया है भावनापूर्ण.पढ़कर अच्छा लगा,बहुत खूब!

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