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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

8/04/2007

विचित्र है राम की माया

भाई हो भरत जैसा
आज भी यही कहा जाता है
क्योंकि फिर कोई भाई
इस धरती पर पैदा ही नहीं हुआ
जिसने बडे भाई की चरण पादुकाएं
उठाकर सिर-माथे लगाई हो
या जिसने डूबती नैया पार लगाई हो
अब तो भाई ही भाई की पीठ में
छुरा घोंपते नजर आता है

मित्र मिले सुग्रीव जैसा
यही सबके दिल में
ख़्याल आता है
क्योंकि फिर कोई मित्र
यहाँ बना ही नहीं
जिसने आफत में
मित्र को उबारा हो
जिसे अपना मित्र
प्राण से भी प्यारा हो
अब तो मित्र ही मित्र की
पीठ में छुरा घोंपता
नजर आता है
राम जैसा पुत्र हर नारी चाहे
पर दशरथ जैसा पिता
किसी को नहीं भाता है


विचित्र है राम की माया
सब जगह गूंजे जयघोष के शब्द
कई जगह होता है उनके नाम
पर भंडारा
सब पुकारें नाम बारंबार
पर अपने हृदय में
देखने की कोशिश
करता हुआ कोई
नजर नहीं आता है
------------

2 टिप्‍पणियां:

Divine India ने कहा…

सच कहते हो भाई… सब माया है तभी तो कलयुग है।

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सही लिखा है।

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