मस्तिष्क से विचारों और अंतर्द्वंद्वों
बीच हाथों से रचे जाते शब्द
मेरे मन की पीडा हर जाते हैं
सोचता हूँ
अब आराम से बैठ पाऊँगा
पर ऐसा होता नहीं
पीडाओं के झुंड अपने साथ शब्दों को लेकर
एक-एक कर फिर मस्तिष्क में
तेजी से चलते आते हैं
कई बार सोचता हूँ
लिखना बंद कर दूं
विचारों और अंतर्द्वंदों से
किनारा कर लूं
बोतल से निकलते जिन्न से
फिर दोस्ती कर लूं
मदहोशी में रहना सीख लूं
पर जब गुजरे पल याद आते हैं
पीडा और बढ़ा देते हैं
फिर शब्दों के झुंड चले आते हैं
मेरे हाथ जिन्न की बोतल से दूर
फिर लिखने के लिए बढ जाते हैं
मैं जितना दूर जाना चाहूँ
अपने शब्दों से
उनके पढने वाले
मुझे याद दिलाने चले आते हैं
कहते हैं वह तुम्हारे शब्द
हमारी पीडा हर जाते हैं
क्योंकि वह सत्य के निकट
नजर आते हैं
मैं नहीं जानता कि
यह सच है या झूठ
बस इतना पता है कि
वह मेरी पीडा को हर ले जाते हैं
जब तक नहीं निकलते
मन को बहुत सताते हैं
लिखते बहुत हैं
अपने लिखे शब्द से पूजते भी बहुत हैं
अपनी नहीं बल्कि परपीडा पर
निरर्थक और अपठनीय लिखकर
स्तुति भी बहुत पाते हैं
पर लेखक की खुद की
पीडा से निकले शब्द
मेरी दृष्टि में साफ नजर आते हैं
पढने को तरसता हैं मन मेरा
पर सुन्दर कागज पर
रंग-बिरंगी स्याही से सजे शब्द
मेरे पठन-पाठन की क्षुधा को
तृप्त नहीं कर पाते हैं
सोचता हूँ कि
क्या लोगों की पीडा कम हो गयी है
पर देखता हूँ अपने आसपास तो
लगता है कि अब लिखते अब वह हैं
जिनके पास आज के युग के
सारे साधन है और वह
संवेंदनहीन होकर दूसरों की पीडा
अपने शब्दों को सजाते हैं
इसीलिये दिल को छू नहीं पाते हैं
हृदय में अच्छा न पढ़ पाने की पीडा
लिखने से दूर कर देती है
सोचता हूँ अपने शब्द-लेखन से
कहीं दूर हो जाऊं
बिना पढे मैं कब तक लिखता जाऊं
पर शब्द और बोतल में बंद जिन्न के
बीच मैं खङा होकर सोचता हूँ
मुझे किसी एक रास्ते पर तो जाना होगा
और शब्द हैं कि झुंड के झुंड
पीडाओं को साथ लिए चले आते हैं
मुझे अपने साथ खींच ले जाते हैं
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3 वर्ष पहले
1 टिप्पणी:
दीपक जी,बहुत बढिया रचना है।गहरे भावो से ओत-प्रोत।सही लिखा है-
पर देखता हूँ अपने आसपास तो
लगता है कि अब लिखते अब वह हैं
जिनके पास आज के युग के
सारे साधन है और वह
संवेंदनहीन होकर दूसरों की पीडा
अपने शब्दों को सजाते हैं
इसीलिये दिल को छू नहीं पाते हैं
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