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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

7/13/2007

अपनी नीयत पर डटे रहना

रिश्तों को नाम देना
लगता है आसान
तब निभाने का
नहीं होता अनुमान
जब दौर आता है
मुसीबत का
अपने ग़ैर हो जाते हैं
ग़ैर फेर लेते हैं मुहँ
रिश्ता कामयाब नहीं कर पाता
अपनी वफ़ा का इम्तहान

कहना कितना आसान लगता है
कि तुम दोस्त ऐसे
मेरे भाई जैसे
तुम सखी ऎसी
बिल्कुल बहिन जैसी
जब आती है घडी निभाने की
तब न भाई का पता
न भाई जैसे दोस्त का पता
न बहिन का पता
न बहिन जैसी का पता
गलत निकलते हैं
अपनेपन के अनुमान

जरा सी बात पर
रिश्ते तैयार हो जाते हैं
होने को बदनाम
फिर भी अपनों से दूर
तुम मत होना
बेवफाई का बदला
तुम वफ़ा से ही देना
दुसरे करते हैं
विश्वास से खिलवाड़
तुम मत करना
कोई कितना भी
रिश्ते को बदनाम करे
तुम निभाते रहना
अपनी नीयत पर डटे रहना
चाहे धरती डोले
या गिरने वाला हो आसमान
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3 टिप्‍पणियां:

Satyendra Prasad Srivastava ने कहा…

उम्मीदों के भरोसे दुनिया चलती है। आपकी कविता में ये बात उभर कर आई है। अच्छा लिखा है।

Udan Tashtari ने कहा…

सार्थक कविता-अपना पूरा सकारात्मक संदेश दे गई.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

दीपक जी बढिया लिखा है।

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