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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

6/03/2007

अपनों का ही टूटता है कहर

टूटी हुई बोतलों के कांच के टुकड़े
बिखरे पडे हुए पत्थर और ईंटें
जलती हुई गाडियां
दिख रहा है मंजर
यह है इक्कीसवीं सदी के
भारत का शहर
अहिंसा से जीता था
कभी यह देश
अब यहां हर छोटी-बड़ी बात पर
टूट पड़ता है हिंसा का कहर
दुश्मनों की आंखों का भय नहीं
अपनों की ही लग जाती हैं नज़र
अपनों का ही टूटता है कहर
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शत्रु अगर सामने होता तो
उसको जमीन दिखा देते हम
यहाँ तो अपने ही हाथ में लिए
खंजर खडे थे
अपने को कैसे बचाते हम
एक व्यक्ति नहीं देश बनकर सोचो
अपने हाथ से अपने बाल न नोचो
देश घायल हुआ तो अपने जख्म
कैसे सहलायेंगे हम
ऎसी आग मत लगाओ
जिसमे जल जाये देश और हम
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1 टिप्पणी:

Reetesh Gupta ने कहा…

बहुत अच्छा लगा पढ़कर ...देश के हालात से चिंतित एवं दुखी भावनायें

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