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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

6/15/2007

वर्षा ऋतू के प्रतीक्षा में

तुझे देखने के लिए
आकाश की ओर ताक रहा हूँ
तू मेरे बदन को छू ले
पसीने से भीगा बदन लिए
तेरे सानिध्य की चाह में
सूरज की आग में जलता हुआ
चल रहा हूँ इस राह में
ओ वर्षा ऋतू तू जल्दी आजा
इस झुलसा देने वाली गर्मी से
मुझे निजात दिला जा
तेरे अमृत के इन्तजार में
गर्म हवाओं से लड़ते-लड़ते
मैं ख़ाक हो रहा हूँ
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आकाश से बरसती आग
गमीं से कांपती धरती
लू के झोंकों से कांपते पेड
ऐसा लगता है
नरक इसी को कहते हैं
इन्तजार है बादलों का
आते हैं
लगता है अमृत लाए हैं
बिन बरसे हवा में चलते जाते हैं
लगता है दिल जलाने आये हैं
पसीने से नहाये
पानी की बूँद-बूँद को तरसे लोग
आकाश से अमृत बरसने के
इन्तजार में अपनी आशा टिकाये हैं
घडी घूम रही है
घूम रहा आकाश
और यह धरती
बरसेगा जब पानी
फैलेगी चहुँ और हरियाली
चारों और पक्षियों का कलरव गूंजेगा
मैदानों में हरी दूब लहराएगी
पेड-पौधे मुस्करायेंगे
तब हम कहेंगे
स्वर्ग इसीको कहते हैं
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1 टिप्पणी:

राजीव रंजन प्रसाद ने कहा…

अच्ची रचना है। सुन्दर मेघ स्तुति :)

*** राजीव रंजन प्रसाद

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