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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

5/26/2007

पत्थर के शहर में

NARAD:Hindi Blog Aggregator
जंगल के जंगल उजाड़ कर
अब खुशबु के लिए आदमी
प्लास्टिक के फूल सूंघता है
पैट्रोल-डीजल और गैस से
बिखेरता है धुआं
फिर अस्पताल में जाकर
ग्लोकोज की बोतलों के
बीच झूलता है
भाषा गूंगी कर दीं
साहित्य को किया बेबस
अब नीरस शब्द
कुंठित व्याकरण
और आत्मराहित कविता में
श्रंगार और अलंकार ढूँढता है ।
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पत्थर के शहर में
कांच के घर बनाकर
चेन की तलाश करता है आदमी
वातानुकूलित कमरों में
कृत्रिम सांस लेता आदमी
जंगल उजाडै , पहाडों को कुचला
पेड काटे और फूल बनने से पहले
कलियों को रौंदा
अब वर्षा ऋतू में पिकनिक मनाने
फिर जलप्रपातों को ढूँढताहुआ
दर-बदर होता आदमी
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1 टिप्पणी:

Divine India ने कहा…

शहर का सच और भौतिकवाद का उत्थान इस कविता में पूर्णत: नजर आ रहा है…।बहुत अच्छा। बधाई!

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