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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

2/07/2014

योग शास्त्र के आधार पर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को चुनौती देना ठीक नहीं-हिन्दू अध्यात्मिक चिंत्तन(yog shastra ke adhar pa aadhunik chikitsa vigyan ko chunauti dena theek nahin-hindu adhyatmik chinttan)



      जब हम भारतीय धर्म की बात करते हैं तो कहते है कि इस ेन मानने वालों से भय है। अन्य धर्म के ठेकेदार इसे ध्वस्त करना चाहते हैं।  सामान्य भारतीय इस तरह के प्रचार का शिकार भी हो जाते हैं पर योग तथा अध्यात्म ज्ञान साधकों के विचार में भारतीय धर्म के सबसे अधिक बैरी वह लोग हैं जो प्रचार के नाम पर तमाम तरह के पाखंड रचते हुए धन तथा शिष्य संग्रह के साथ ही सम्मान के लिये प्रयास करते हैं।  महत्वपूर्ण बात यह है कि योगविद्या की प्रेरणा तथा तत्वज्ञान देने वाले कथित धार्मिक प्रचारक  श्रीमद्भागवत गीता तथा पतंजलि योग सूत्रों के बारे में  जानते ही नहीं है या फिर उनका ज्ञान अल्प है।  कुछ लोग तो थोड़ा अध्ययन करने के बाद ही धर्म प्रचार में निकल पड़ते हैं-प्रत्यक्ष वह लोग साधु दिखते हैं पर दरअसल उनका यह अभियान एक तरह से व्यवसाय होता है। वह धर्म के प्रचार के दौरान दान या दाम लेते हैं जिससे उनकी भौतिक उपलब्धियां प्राप्त होती हैं।  अनेक कथित संतों ने इतनी संपदा एकत्रित कर ली है कि बड़े बड़े पूंजीपति तक उनके आगे सिर झुकाते हैं।  कई संत तो अपने संस्थानों का पैसा लाभी के लिये औद्योगिक  क्षेत्र में विनिवेश करते हैं और लगता है कि कहीं न कहीं उनके आगे सिर झुकाने वाले धनपति उनसे लाभ उठाने के कारण ही शिष्य बनते हैं और सामान्यजनों का यह भ्रम होता है कि हमारे गुरु इतने पहुंचे हुए हैं कि उनके आगे बड़े बड़े नतमस्तक हैं।
      अभी हाल ही में एक संस्थागत संत की समाधि को लेकर चर्चा हुई।  उन संत के सीने में दर्द्र हुआ। शिष्य उनको लेकर अस्पताल गये वहां उनकी मृत्यु हो गयी। चिकित्सकों ने उनको मृत घोषित किया पर शिष्य उनका शव आश्रम में ले आये और शीतगृह में रख दिया। शिष्यों का कहना है कि उनके गुरु समाधि में हैं और वापस आयेंगे।  आश्रम के बाहर भक्तजनों का जमावाड़ा है।  इस पर बहस में अनेक साधु भी आये। कुछ ने  संत की मृत्यु को सत्य माना पर समाधि को लेकर उनके बयान भी समझ से परे थे। आधुनिक या पाश्चात्य चिकित्सीय विज्ञान समाधि को नहीं समझ सकता-यह भ्रम फैलाया जा रहा है।  जब संत का हृदय और मस्तिष्क निष्क्रिय हो तो यकीनन उनका देहावसान हो चुका है पर अनेक कथित संत कहते हैं कि भले ही वह चर्चित संत समाधि में न हो पर समाधि में होने पर मस्तिष्क और हृदय की क्रिया बंद रहती है।  वह आधुनिक चिकित्सा विज्ञान को हेय प्रमाणित करते हुए कहते हैं कि समाधि का विषय उसकी समझ की परिधि से बाहर है।
      हमारा मानना है कि चिकित्सा विज्ञान के साथ भारतीय अध्यात्म दर्शन के सिद्धांतों की संगत होना कोई बुरा नहीं है और अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिये चुनौती की बात करना आत्मविश्वास की कमी का प्रमाण है ही नहीं हास्य का विषय भी बन जाता है।
      यहां यह बता दें कि समाधि एक प्रकार की मनस्थिति है और देह से उसका कोई संबंध नहीं है। पहली बात तो यह कि समाधि की बात करने वालों ने कभी यह बताया ही नहीं कि उसके भी दो प्रकार होते हैं- एक सबीज दूसरी निर्बीज समाधि।
      पतंजलि योग के अनुसार चित्तवृतियों का निरोध ही समाधि है और यह अभ्यास और वैराग्य से ही संभव है। चित्त में स्थिरता के लिये किया जाने वाला प्रयास अभ्यास है।  यह अभ्यास लंबे समय तक होता है और जब देखे अथवा सुने विषयों पर चित्त का नियंत्रण हो जाता है तब उसे वैराग्य ही समझा जाना चाहिए।  सीधी बात कहें तो चित्त की स्थिरता ही समाधि है। स्वप्न तथा निद्रा का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी स्थिर चित्त या समाधिस्थ कहा जाता है।
      हमारे अध्यात्म दर्शन के अनुसार निद्रा मोक्ष का ही रूप है।  जिस व्यक्ति को यह ज्ञान हो गया है कि प्रातःकाल धर्म, दोपहर काल अर्थ, सांयकाल काम या मनोरंजन और रात्रिकाल मोक्ष के लिये है उसे अन्य किसी ज्ञान की आवश्यकता ही नहीं है।  उसकी निद्रा ही समाधि है।  जब वह निद्रा में होता है तो उसे स्वप्न भी आते हैं पर वह उनकी परवाह नहीं करता। प्रातःकाल वह फिर धर्म कार्य में लग जाता है।  एक तरह से वह योगी या समाधिस्थ पुरुष ही है। सांसों को रोकनस और छोड़ने की प्रक्रिया  जहां स्वाभाविक रूप से होती है तो प्राणायाम में व्यक्ति उसका स्वयं संचालन करता है।  समाधि में इन सांसों के रुकने की बात अपने आप में एकदम कुतर्क लगता है क्योंकि सांसों पर नियंत्रण की प्रक्रिया को प्राणायाम कहा जाता है।
      पतंजलि योग का आष्टांग योग एकदम वैज्ञानिक सूत्रों वाला है।  उसके आधार पर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान या प्राणी विज्ञान को चुनौती देने का कोई अर्थ ही नहीं है। प्राणी या चिकित्सा विज्ञान जीव की देह तक ही सीमित है और पतंजलि योग मनुष्य की मनस्थिति को नियंत्रित करने के सूत्र प्रतिपादित करता है।  देह के विषय में चिकित्सा विज्ञान को चुनौती देने से कोई अपने आपको ज्ञानी साबित करने का प्रयास भले ही करे पर हमारी दृष्टि से यह उसके अज्ञान तथा आत्मविश्वास की कमी का प्रमाण है। अगर चिकित्सक किसी देह को मृत घोषित करते हैं तो उन्हें इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि वह समाधि के विषय में कुछ नहीं जानते। अंततः समाधि एक दैहिक नहीं वरन् एक मनस्थित है और यकीनन चिकित्सक देह के बारे में एक योग साधक से अधिक जानते होंगे।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 
ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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