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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/24/2007

दूसरों के अँधेरे ढूंढते लोग

कहीं खुश दिखने की
तो कहीं अपना मुहँ बनाकर
अपने को दुखी दिखाने की कोशिश करते लोग
अपने जीवन में हर पल
अभिनय करने का है सबको रोग
अपने पात्र का स्वयं ही सृजन करते
और उसकी राह पर चलते
सोचते हैं'जैसा में अपने को दिख रहा हूँ
वैसे ही देख रहे हैं मुझे लोग'

अपना दिल खुद ही बहलाते
अपने को धोखा देते लोग
कभी नहीं सोचते
'क्या जैसे दूसरे जैसे दिखना चाहते
वैसे ही हम उन्हें देखते हैं
वह जो हमसे छिपाते
हमारी नजर में नहीं आ जाता
फिर कैसे हमारा छिपाया हुआ
उनकी नजरों से बच पाता'
इस तरह खुद रौशनी से बचते
दूसरों के अँधेरे ढूंढते लोग
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3 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

इस तरह खुद रौशनी से बचते
दूसरों के अँधेरे ढूंढते लोग

--बहुत सही बात की है आपने.

आलोक ने कहा…

दूसरों के अँधेरे ढूंढते लोग

सही। इस व्यवहार का मनोविज्ञान में भी उल्लेख है - ब्लेमिश के तौर पर।

आलोक

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

सोलह आने सच है भाई कि हम सिमटते जा रहे हैं अपने ही दायरे में,सही फरमा रहे हैं,कि-
''इस तरह खुद रौशनी से बचते
दूसरों के अँधेरे ढूंढते लोग''बार- बार पढ़ने योग्य है यह.

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