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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

7/07/2007

लेखक को अपने रचनाकर्म से ही प्रतिबद्ध होना चाहिऐ

एक लेखक को अपनी रचनाओं के साथ अपनी भावनाओं को जोड़कर आगे बढ़ना चाहिऐ पर तब का जब तक वह उस पूरा न कर ले- उसके पश्चात उसे वहां से त जाना चाहिए और उसके मूल्याकन का दायित्व पाठकों पर छोड़ देना चाहिए। एक पाठक को भी कभी लेखक से यह सवाल नहीं करना चाहिए कि क्या वह जजबात अभी भी उसके अन्दर हैं जो रचना के समय थे।

मैं जब कोई रचना लिखता हूँ तो पूरी तरह उसमें डूबने का प्रयास ही नहीं करता क्योंकि मुझे लिखना है यह भाव इस कद्र मेरे अन्दर आ जाता है कि मुझे इसके लिए कोई अधिक विचार नहीं करना पड़ता। अपने विचारों के क्रम को बग़ैर देखे आगे जाने देता हूँ जहाँ मैं उसे जुड़ने का प्रयास करता हूँ रचना गड़बड़ा जाती है। लिखने के लिए ही प्रतिबद्धता के चलते ही मुझे कभी कोई ठिकाना नहीं मिला, क्योंकि जब एक लेखक के रुप में अपने लिए कोई समूह या वर्ग ढूँढेंगे तो वह आप पर अपने हिसाब से अपनी शर्तों पर लिखने के लिए दबाव डालेगा- और तब अपना मौलिक चिन्तन और मनन खो बैठेंगे। आधुनिक हिंदी साहित्य में प्रेमचंद, सूर्यकांत त्रिपाठी'निराला', जय शंकर प्रसाद और रामधारी सिंह दिनकर के बात यदि कोई लब्ध प्रतिष्ठत लेखक नहीं हुआ तो उसका कारण यही है कि बाद के काल में लेखक की लेखन से कम उससे होने वाली उपलब्धि पर ज्यादा दृष्टि अधिक रही है। श्रीलाल शुक्ल, हरिशंकर परसाईं, और शरद जोशी जैसे चन्द लेखक ही हैं जो बाद के काल में अपनी छबि बना सके।

लेखक का काम है लिखना! अपनी रचना को साहित्यक ढंग से पाठको के समक्ष प्रस्तुत करना न कि एक समाचार के रुप में प्रस्तुत करना। गरीब की वेदना, अमीर का तनाव और मध्य वर्ग के भावनात्मक संघर्ष पर उसका दृष्टिकोण एक समान रहना चाहिऐ, उसे इस बात से कोई मतलब नहीं रखना चाहिए कि उसके लिखने की किस पर क्या प्रतिक्रिया होगी। उसे केवल इस बात पर ध्यान देना चाहिऐ कि उसका पाठक कोई भी हो सकता है और किसी भी वर्ग का। महिला भी हो सकते है और पुरुष भी , बच्चा भी हो सकता है और बूढा भी , अधिक शिक्षित भी हो सकता है और कब भी। पिछले कई सालों में प्रतिबद्ध लेखन के वजह से लेखकों के कई वर्ग बने जिसने सुरुचिपूर्ण और सार्थक लेखन के प्रवाह को अवरुद्ध किया और पाठक अच्छी रचनाओं को तरस गये और इसी कारण लोग आज भी अच्छी रचनाओं को ढूँढ रहे हैं। प्रतिबद्ध लेखन से कभी भी अच्छी रचनाओं की उम्मीद नहीं की जाना चाहिए। कुछ लोग केवल गरीबी के बारे में लिखकर अपनी छबि चमकते रहे तो कुछ लोग अमीरों के छत्रछाया में विकास के बारे में लिखकर पाने लिए सुविधाये जुटाते रहे, अपनी रचनाओं में जज्बातों को भरने में उनकी नाकामी ने पाठकों को अच्छी रचनाओं से महरूम कर दिया।

प्रसिद्ध लेखक तो बहुत हैं पर उनकी रचनाएँ कितनी प्रसिद्ध हैं यह सभी जानते हैं। लिखा बहुत जा रहा है पर पढने लायक कितना है और कितना सामयिक है और कितना है और कितना दीर्घ प्रभावी यह हम सभी जानते हैं। पत्रकार और लेखक में अन्तर ही नहीं समझते। पत्रकार अपने समाचारों में जबरन जज्बात भरने का प्रयास करते हैं तो लेखक अपनी रचनाओं को समाचार के रुप में प्रस्तुत करते हैं । सभी लोग कहते हैं कि हिंदी में अच्छे लेखकों की कमी है पर यह कोई नहीं कहता कि वास्तव में लेखकों को संरक्षण देने वालों की कमी है। जिनमे उन्हें संरक्षण देने की क्षमता है वह उनका उपयोग एक मुनीम की रुप में करना चाहते हैं। समाचारपत्र-पत्रिकाएँ आजकल पुराने रचनाकारों को छापकर वाह -वाही लूट रहे क्योंकि उन्हें कुछ रकम देना नहीं पड़ती। केवल यही बात नहीं है बल्कि वह यह भी नहीं चाहते कि कोई नया लेखक उनके वजह से प्रतिष्ठित हो जाये, इसीलिये प्रतिष्ठित लोगों को ही लेखक पेश कर रहे हैं। मैं स्वयं अच्छी रचनाओं के लिए तरसता हूँ क्योंकि अगर आप अच्छा लिखना चाहते हैं तो अच्छा पढ़ें भी-ऎसी मेरी मान्यता है । जब मुझे अच्छा पढने को नहीं मिलता तो मैं अपनी ही धर्म ग्रंथों को पढना शुरू कर देता हूँ तो मुझे लगता है कि उनकी विषय सामग्री आज भी सामयिक है। उनमें मुझे एक बात साफ लगती है कि उनके रचनाकार केवल अपनी रचनाओं के लिए ही प्रतिबद्ध थे। (क्रमश:)

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