राजकाज में लघुजन भी हो गये बड़े, सिर चांद चढ़े पांव उनके आकाश में खड़े।
‘दीपकबापू’ दिन भर जंग रात को सो जाते, औकात में रहे आमजन वही बड़े।।
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इष्ट को भक्त भ्रष्टों को भ्रष्ट प्यारे हैं, दुआ से फले पर बद्दुआ के भी मारे हैं।
‘दीपकबापू’ भलाई के धंधेबाज सेवक बने, बड़े पदनाम से कमाई में वारे न्यारे हैं।।
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परिवार पालने के लिये तख्त पर चढ़े हैं, प्रजा कहां देखें रिश्ते ही उनके बड़े हैं।
‘दीपकबापू’ पर्दे पर ही दिखते नये महापुरुष, रास्ते पर तो आमइंसान ही खड़े हैं।।
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इंसान की पहचान चेहरे पर नहीं लिखी, बिकती बाज़ार में चाहे कीमत नहीं दिखी।
‘दीपकबापू’ अपनी लालची नीयत छिपा देते, ज़माना भी क्या करे जो असलियत दिखी।।
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करते आत्मविज्ञापन अपनी नहीं पहचान, बजवाते किराये पर ताली नहीं जिनकी शान।
‘दीपकबापू’ दहाड़ते ध्वनि विस्तारक यंत्र के सहारे, रुग्ण कंठ आवाज में नहीं बची जान।।
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जनता के सेवक अब स्वामी बन गये हैं, लोकतंत्र में तानाशाही के हामी बन गये हैं।
‘दीपकबापू’ पद पर विराजे ताना सहते नहीं, दबंग लुटेरों के अनुगामी बन गये हैं।।
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युद्ध के शंखनाद प्रतिदिन होते रहेंगे, आम लोग अपने दाव खोते रहेंगे।
‘दीपकबापू’ सौदागरों के खेल देखते, उनकी बेची हंसी रोना ढोते रहेंगे।।
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स्वयं आजाद कहना हरेक को अच्छा लगता है, लालची बंधन में आप ही ठगता है।
‘दीपकबापू’ चाल चलन का हिसाब देखते नहीं, दुष्चरित्र भी छबि बनाने में जगता है।।
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अपनी कामयाबी का स्वयं ढोल बजाते हैं, नाकामी पर पराया दोष सजाते हैं।
‘दीपकबापू’ समाजसेवक वेश में सौदागर, उनकी अदा से परोपकारी लजाते हैं।।
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