सिंहासन के लिये होता दंगल, घावों से रिसते खून में दिखाते मंगल।
‘दीपकबापू’ भावनाहीन हो गये, शहर भी डराते अब जैसे सूने जंगल।।
-
कभी बल कभी छल से राज चलते हैं, निर्वासित हंसों के घर में बाज़ पलते हैं।
‘दीपकबापू’ शोर में अक्ल मर गयी, लोहे के सिक्के सोने के मोल आज ढलते हैं।
---
चांदी की थाली में भोजन पायें, यजमान को त्याग का ज्ञान बतायें।
‘दीपकबापू’ किताबें पढ़ बने ज्ञानी, शब्द वाचन से ही अर्थसिद्ध पायें।।
------
सिंहासन के लिये अपना ईमान लुटाते, पद के लिये पादुका भी उठाते।
‘दीपकबापू’ स्वाभिमान मारकर बैठे, लोभ के अंधे त्यागी की छवि जुटाते।।
--
जिनका एकमेव भगवान भी धन है, उजाले में भी अंधेरे से जूझता मन है।
‘दीपकबापू’ ज्ञान के गीत गाते झुमकर, वाणी उनकी अर्थरहित शब्दवन है।।
-----
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें