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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/17/2016

मुंबईया फिल्मों का वैचारिक बंटवारा अब साफ दिखने लगा है-हिन्दी संपादकीय Now Clear showing Front partician based on Thought two Group in bollybood-Hindi editorial


                मुंबई फिल्म उद्योग मूलतः भारतीय कलाकारों,  तकनीशियानों, लेखकों, गायकों, तथा संगीतकारों के योगदान पर ही आधारित है। इसमें विदेशी कलाकार भी आते हैं पर उनका योगदान आटे में नमक बराबर है। इतना ही नहीं मूलतः इसके दर्शक भी उत्तर भारतीय हिन्दी भाषी क्षेत्र के ही रहने वाले हैं-जिनकी परवाह कतिपय रूप से कुछ फिल्मकार नहीं करते।  एक दूसरा पहलू भी है मुंबईया फिल्मों हिन्दी मेें बनने के बाद अन्य भाषाओं में डब होकर विदेश में प्रदर्शित होती हैं।  खास तौर से अरेबिक देशों में भी भारतीय फिल्मों के दर्शक ढेर सारे हैं पर इसके बावजूद इन फिल्मों के दर्शकों का बहुत बड़ा भाग भारत के हिन्दी भाषाी से आता है।
               अभी जब उरी हमले के बाद पाक कलाकारों पर रोक का विषय आया तो अनेक लोग यह देखकर हैरान हो गये कि अपने ही देश के दर्शकों की परवाह छोड़कर अनेक फिल्मकार देश की विचाराधारा के विपरीत बोलने लगे। हमें इस पर हैरानी नहीं हुई क्योंकि पता है कि दर्शक भले ही उत्तर भारतीय हों पर कुछ फिल्मकारों को विनिवेश अरेबिक विचाराधारा वाले देशों से अधिक मिलता है-या फिर इनके  गैर अरेबिक विनिवेशक उन देशों में रहते हैं। मूल हिन्दी भाषी दर्शकों को यह फिल्मकार तो कहीं गिनते ही नहीं है क्योंकि कहीं साक्षात्कार वगैरह देना हों तो धड़ल्ले से अंग्रेजी भाषा बोलकर यह भी बताते हैं कि यह हिन्दी जनमानस से अलग विशिष्ट वर्ग के हैं।
प्रारंभ में हमें लगा कि पाक कलाकारों को लेकर अधिक विवाद नहीं चलेगा पर कमाल है मुंबईया फिल्मकारों की पूंछ ऐसी दबी हुई है कि प्रतिदिन एक नया जमूड़ा पाक का झंडा उठाये टीवी पर चला आता है। इससे यह भी पता चल गया है कि अरेबिक विनिवेश की मुंबईया फिल्मों में इतनी गहराई है कि उसका सामना आसानी से नहीं किया जा सकता। इसी विनिवेश का परिणाम है कि अनेक फिल्मों में हिन्दू संस्कार पद्धति पर व्यंग्य कसे जाते हैं पर अरेबिक धर्म पर कभी कटाक्ष नहीं मिलता।  पटकथायें और गीत भी इस तरह लिखे जाते हैं कि अरेबिक विचारधारा का प्रभाव बढ़ें।  अभी से ढाई वर्ष पूर्व तक हम जैसे लोग इशारों में अपनी आशंकायें लिखते थे पर अब तो खुलेआम सब प्रकट हो रहा है।  ऐसा नहीं है कि फिल्मों में ही अरेबिक प्रभाव वाला विनिवेश है वरन् यह प्रचार जगत पर भी दिखाई देता है। यही कारण है कि मुंबईया फिल्मों को सबसे अधिक राजस्व दिलाने वाले अक्षयकुमार को कभी सुपरा स्टार का दर्जा नहीं दिया जाता। अनेक सफल फिल्मों में नायक अजय देवगन और गोविंदा, अनिलकपूर और सुनील शेट्टी की चर्चा इस तरह चर्चा होती है जैसे कि ऐरे गैरे नत्थूखैरे हों।  बहरहाल मुंबईया फिल्मों में अब दो गुट साफ दिखेंगे जो पहले केवल पर्दे के पीछे सक्रिय थे। वैसे एक स्वतंत्र लेखक के रूप में हमारी पाक कलाकारों पर भारत में काम करने के रोक के विषय पर कोई राय नहीं है अलबत्ता इस पर चल रहा विवाद देखकर मजा आ रहा है।
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        वॉलीवुड से हॉलीवुड गयी एक अभिनेत्री ने तो खुली धमकी दे दी है कि पाकिस्तानी कलाकारों को भारत में काम करने से रोकने के बुरे परिणाम होंगे। उसे डर लग रहा है कि हॉलीवुड में जो अरब पूंजीपतियों का दबदबा है उसकी चलते कहीं फिर वॉलीवुड न लौटना पड़े-वरना उरी हमलों में शहीद जवानों के समय उनके तथा देश के प्रति सहानुभूति के शब्द जरूर कहती।  मानना पड़ेगा कि हमारे वॉलीवुड पर पाकिस्तान की पकड़ उससे ज्यादा तगड़ी है जितनी हम समझ रहे थे। इस समूह की ताकत कितनी बड़ी है कि रोज एक न एक कथित बड़ा कलाकार पाक के समर्थन में खड़ा होता है।  एक ने प्रधानमंत्री को चुनौती दी तो उस अमेरिकी प्रवासी अभिनेत्री ने तो देश को ही धमकी दे डाली।
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            एक फिल्म चलाने के चक्कर में मुंबईया फिल्मों के कुछ लोग  इस हद तक पहुंच गये हैं कि वैसे ही वह पाकिस्तानी कलाकार के कारण हिट नहीं होने वाली थी अब तो उसे शायद ही सिनेमाघर के पर्दे नसीब हों- वह भी मिल गये तो दर्शक शायद ही मिलें।  यह फिल्म वाले विचाराधाराओं के ठेकेदार तो बनते हैं पर उनको पता नहीं कि वह व्यापारी हैं और उन्हें राज्य से बैर नहीं रखना चाहिये था। ऐ दिल मुश्किल है उन्हें समझाना कि या तो पर्दे पर आकर विद्वता झाड़ो या फिर चुपचाप व्यापार करो।
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                             पाकिस्तानी कलाकारों से अभिनीत फिल्मों का वितरकों एक वर्ग ने प्रदर्शन रोकने का निर्णय लेकर राष्ट्र के प्रति अपने सद्भाव का प्रदर्शन किया है।  कुछ लोगों का यह कहना भी सही है कि पाक कलाकर तो पैसा लेकर चले गये अब नुक्सान तो भारतीय व्यवसायियों का है। इस विषय पर हमारा कहना है कि जिन निर्माताओं ने पाकिस्तानी कलाकारों को अपने यहां काम दिया उन्हें इस जोखिम को समझना चाहिये था कि जिस तरह क्रिकेट पर पाकिस्तान की करतूतों की गाज गिरती है, उसी तरह वहां के कलाकारों से भी हो सकता है।  वैसे क्रिकेट और फिल्मों का आपस में जिस तरह मिक्सिंग और फिक्सिंग है उसके चलते कभी भी इस तरह का तनाव हो सकता है-यह फिल्म निर्माताओं को समझना चाहिये था।  वैसे फिल्म वितरकों एक वर्ग अभी खामोश है पर इतना तय है कि वह प्रदर्शित भी करेगा तो उस अब विवाद खड़ा जरूर होगा।  वैसे हमें आज तक एक बात समझ में नहीं आयी  कि किसी भी पाकिस्तानी कलाकार की फिल्म भारत में अधिक सफलता प्राप्त नहीं कर पायी तब उन्हें लेने वाले निर्माता क्यों सोचकर ऐसा जोखिम उठाते हैं।
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1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

सुन्दर, बेहद सुन्दर !

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