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4/26/2015

नेपाल में भूकंपः सहायता करना विश्व समुदाय का दायित्व-विशिष्ट रविवारीय लेख(arthquake in nepak-A special hindi sanday article)

नेपाल के कल शनिवार और आज रविवार के भूकंप ने भारतीय प्रचार माध्यमों के लिये विज्ञापन के प्रसारणों के दौरान विशिष्ट अवकाशीय विषय सामग्री का प्रबंध कर ही दिया। प्राकृतिक प्रकोप से निर्मित समाचारों और बहस के प्रसारण के लिये किसी पूर्व प्रयास की आवश्यकता नहीं होती।  जहां मानवीय कृत्यों से निर्मित समाचार और बहसों की स्थिति होती है तब जरूर लगता है कि  उसमें शामिल पात्र अपने अभिनय, वाणी या क्रियाकलाप के लिये धन लेकर तो विषय का प्रबंध कर रहे हैं। खासतौर से राज्य, समाज या प्रचार माध्यमों में उत्तेजना पैदा करने वाले कियाकलापों, वक्तव्यों तथा विषयों में जिस तरह प्रचार माध्यमों का विज्ञापन का समय पास होता है तब यह संदेह होता ही है।
बहरहाल भूकंप का केंद्र नेपाल है पर उसका प्रभाव भारत पर भी दिख रहा है। इधर हमारे शहर ग्वालियर में भी इसकी अनुभूति की चर्चा रही पर हम उससे अछूते रहे।  आज रविवार को जब टीवी पर जीवंत भूकंप प्रसारण देख रहे थे तब अपने कमरे का भी यह सोचकर अवलोकन कर रहे थे कि शायद हमें भी भूकंप दर्शन करा दे।  बाद में टीवी पर उसके प्रभाव का गोलाकार वृत्त देखा तो मध्यप्रदेश उसमें नहीं था। भूकंप के बारे में विशेषज्ञ बताते हैं कि प्रत्यक्ष उससे अधिक जनहानि नहीं होती जितनी मानव निर्मित ढांचों के ढहने से होती है। कहीं पुराने तो कहीं कमजोर निर्मित इमारतें भूकंप सहन नहीं कर पाती और धरातल पर चली आती हैं। भूंकप हो या कोई अन्य प्राकृतिक प्रकोप जब काल का रूप धारण करता है तो वह अमीर- गरीब, राजा-प्रजा, महल-मकान, तथा खेत-खाई का भेद किये बिना आगे बढ़ता जाता है। जो लोग मर जाते हैं उनका श्रद्धांजलि देने के लिये अपने ही लोगों को ही समय नहीं मिलता क्योंकि वह स्वयं अपनी जान बचाने के लिये जूझ रहे होते हैं। आत्मीय मृत्तक की अर्थी तब सजायें जब अपने खड़े होने के लिये उनको जगह मिले।  सीधी बात कहें तो जो मर गये वह तो मोक्ष पा गये पर उनके पीछे परिवार वालों का संकट सामान्य से ज्यादा होता है।  भूकंप के लोग शरणार्थी शिविरों में आसरा लिये होते हैं और उनकी समस्या यह होती है कि अपने लिये रोटी पानी का इंतजाम करें या आत्मीय हताहतों की सहायता के लिये समय निकालें।  प्रभावित परिवारों का संकट केवल वही समझ सकते हैं जबकि प्रचार माध्यम उनके दर्द का व्यापार कर अपने दर्शकों में आर्त भाव पैदा करते हुए अपना विज्ञापन का समय निकालते हैं।
एक किस्सा इस लेखक को याद आ रहा है। एक बार एक सरकारी अस्पताल में लगातर दस दिन जाना पड़ा।  वहां सोमवार से गुरुवार वातावरण तनावपूर्ण पर शांत रहता था मगर शुक्रवार शाम से रविवार रात तक कुछ अजीब अशांति रहती थी। इस लेखक ने अपने मन की बात एक बुजुर्ग चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से कही। वह बोला-‘‘हां यह बात तो है! शुक्रवार से रविवार तक यहां न केवल ज्यादा आते हैं वरन्  मौतें भी ज्यादा होती हैं।   इतना ही नहीं इन दिनों में भर्ती होने मरीजों के जीवन पर संशय भी ज्यादा देखा है। इसके विपरीत जो मरीज सोमवार से गुरुवार तक भर्ती होते हैं उन्हें यहां से स्वस्थ होकर देखने का प्रतिशत भी अधिक रहता है।
          संभव है हमारी सोच और उसके अनुभव में कोई सच्चाई न हो पर हमारे मन में यह बात घर कर गयी। उसके बाद से हमने देखा कि हमारे घर में कोई भी संकट शुक्रवार से ही शुरु होकर रविवार शाम तक रहता है। सोमवार की प्रातः आशा तथा अच्छे दिन की किरण दिखाई देती है।  हालांकि यह मन का वहम भी हो सकता है क्योंकि कुछ परेशानियां सोमवार को भी यथावत रहती है पर कम से कम उनका निवारण अगले सोमवार तक तो हो ही जाता है। हर शुक्रवार संकट नहीं आता इसलिये यह कहना भी ठीक नहीं है कि यह दिन बुरा होता है।
नेपाल में जो लोग  यह सौभाग्य है कि वह प्रकृति की ऐसी गोद में रहते हैं जो मैदानी इलाकों के लिये एक सपना होती है। मैदानी के लोग उसमें कुछ दिन रहने के लिये पैसा खर्च करने वहां जाते हैं। उनका पर्यटन ही नेपाली लोगों के लिये रोजगार का बहुत  स्तोत्र होता है। इस संकट में उनके लोगों की मौत हो गयी और उसका दर्द उन्हें सहना ही है। विश्व बिरादरी को चाहिये कि उनकी मदद करे।
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लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 
ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh


वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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