राजसी कर्म में लिप्त राजसी प्रवृत्ति के
लोगों से सदैव सात्विकता की आशा नहीं करना चाहिये। मनुष्य इस त्र्रिगुणमयी माया के
चक्कर में जकड़ा हुआ है और उससे बचने का उपाय योग साधना है। सभी योगी नहीं हो सकते
यह तय है। यह भी सत्य है कि सभी भोगी भी नहीं हो सकते। कुछ लोगों की मूल
प्रकृत्ति हमेशा एक जैसी रहती है पर अधिकतर लोग समयानुसार इन प्रकृत्तियों के
वशीभूत होकर काम करते है। यह आवश्यक नहीं
है कि सात्विक कभी राजसी प्रकृति का काम न करे या राजसी प्रकृत्ति वाला कभी
सात्विक रूप धारण न करे। उसी तरह यह भी जरूरी नहीं है कि राजसी और सात्विक
प्रवृत्ति वाले कभी तामसी जाल में न फंसे। उसी तरह तामसी प्रवृत्ति वाले भी कभी
सात्विक तो कभी राजसी प्रवृत्ति के अनुसार काम कर सकते है। लेकिन यह सत्य है कि
राजसी कर्म राजसी प्रवृत्ति के अनुसार ही राजसी पुरुष श्रेष्ठ रूप से संपन्न करते हैं। दूसरी बात यह भी है कि राजसी
कर्म से संसार का संचालन होता है।
सात्विक तथा तामसी प्रकृत्ति से सांसरिक विषय अधिक विस्तार नहीं पाते जबकि
राजसी कर्म बृहद रूप में होता है। राजसी
कर्म परिवार तथा समाज दोनों में ही
प्रभावी ढंग से करना आवश्यक होता है
क्योंकि भौतिक परिणाम का यही एक मार्ग है। राजसी कर्म व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक
दोनों ही जगह करने पर ही संसार का संचालन होता है। सार्वजनिक रूप से राजसी कर्म
करना यानि राज्य पद पर बैठकर समाज का संचालन करने से व्यक्ति की छवि व्यापक रूप से
बनती है। यही कारण है कि अधिकतर लोग राज्य पद पर प्रतिष्ठित होकर दूसरों पर
नियंत्रण करने का सपना देखते हैं। मूलत हर
व्यक्ति में दूसरे से श्रेंष्ठ दिखने की चाह होती है जो शुद्ध रूप से अहंकार का
प्रमाण है। राजसी कर्म से ही यह संभव है कि दूसरे व्यक्तियों को प्रभावित किया
जाये। यह संभव नहीं है कि कोई मनुष्य अहंकार के वशीभूत न हो पर यह कुछ लोगों को
भाग्य में होता है कि उन्हें सार्वजनिक रूप से पद मिल जाता है। जिसे राज्य
मिल गया वह राजा और जिसे नहीं मिला वह प्रजा रूप में स्थित रहता है।
कहा जाता है कि काजल की कोठरी में कोहु स्याना जाय, हाथ काले होने से न बच पाय। यही
स्थिति छोटे से लेकर बड़े राज्य पद पर बैठे व्यक्ति की होती है। राज्य पद पर बैठा
व्यक्ति कितना भी ईमानदार हो उसे सामंतों, सेठों और जमीदारों की भेंटे लेनी ही पड़ती है। उस भेंट के कारण उसे उनके
अनेक ऐसे काम अनदेखे करने पड़ते हैं जिसे कानून रोकता है। जब प्रजा में सामान्य मनुष्य अपना अहंकार,
काम, क्रोध, लोभ
तथा मोह नहीं छोड़ पाते तो उन्हें राज्य पद पर बैठे व्यक्ति से भी त्याग की आशा
नहीं करना चाहिये। यह अलग बात है कि
अज्ञान के अंधेरे में बैठे परेशान लोग ऐसी अपेक्षायें करते हैं कि संभव है कि
राज्य उनके लिये कुछ ऐसा करे कि उनकी समस्या हल हो जाये।
राज्य पद पर बैठे सभी लोग एक जैसे नहीं हो सकते। यह भी सत्य है क्योंकि
उनमें भी सत्वगुण और तामसी गुण कभी न कभी अपना प्रभाव डाल सकते हैं। किसी के भाग्य
में हो तो संभव है कि राजसी कर्म में लिप्त व्यक्ति सात्विकतावश उसका भल करे दे पर
हमेशा ऐसी आशा नहीं करना चाहिये। राजसी कर्म वाले व्यक्ति को कभी तामस प्रवृत्ति
का शिकार नहीं होना चाहिये पर वह हो भी सकता है। मूल रूप से राजसी कर्म वाले
व्यक्ति में उससे जुड़े गुण भी होते हैं और उसका परिणााम भी वह भोगता है। प्रजा में स्थित सामान्य मनुष्य हमेशा ही राज्य
कर्म वाले लोगों से सात्विकता की आशा करते हैं जो कि स्वयं को धोखा देने से अलग
कुछ भी नहीं हैं। अगर ऐसा न होता तो
इतिहास में इतने सारे सत्ता संघर्ष नहीं होते।
अनेक राजाओं की गर्दनें कट गयी तो अनेक बीमारियों का शिकार होकर काल के गाल
में चले गये। यही कारण है कि सात्विक लोग कभी सार्वजनिक पदों की तरफ झांकते नहीं
और तामसी प्रवृत्ति वाले तो सोचते भी नहीं।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप
ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
अन्य ब्लाग
1.दीपक भारतदीप की शब्द पत्रिका
2.अनंत शब्दयोग
4.दीपक भारतदीप की शब्दज्ञान पत्रिका
5.दीपक बापू कहिन
6.हिन्दी पत्रिका
७.ईपत्रिका
८.जागरण पत्रिका
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें