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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/11/2013

मृत्यु सत्य है तो जीवन भी सत्य है-हिन्दी चिंत्तन लेख(mrityu satya hai to jivan bhee satya hai-hindi chinttan lekh or thought article)



                       
                        भारत में  व्यवसायिक संतों को इतने सारे भक्त मिल जाते हैं तो इस पर किसी को आश्चर्य चकित होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हमारे देश के  परंपरागत मानस प्रवृत्ति यही है कि अध्यात्म का ज्ञान और मन को बहलाने का विषय एक ही जगह उपलब्ध होने पर लोग ज्यादा खुश होते हैं।  भारतीय जनमानस की यह प्रवृत्ति रही है कि वह धार्मिक कार्यक्रमों में भी अपनी अध्यात्म की भूख शांत करना चाहता है तो मन बहलाने को भी उत्सुक रहता है। पहले भारत के बृहद शहरों की बजाय गांवों के आधार पर समाज केंद्रित था।  वहां लोगों को सीमित क्षेत्र में ही कार्य करने के साथ ही पर्यटन के साधन ही उपलब्ध थे।  यही कारण है कि पौराणिक कथानकों के सुनाने के लिये उनके पास कथाकार आते रहे जिनको संत का दर्जा इसलिये मिला क्योंकि उनका विषय कहीं न कहीं अध्यात्म से जुड़ा रहा।
                        यह प्रवृत्ति आज भी है।  चाहे कितनी भी अच्छी कहानी या फिल्म हो अगर वह अध्यात्म रूप से संदेश नहीं देती तो दर्शक उसे श्रेष्ठता का दर्जा नहीं देता। हम अपने यहां भी प्रगतिशील लेखकों का समूह देखते हैं जो यहां के पाठकों से हमेशा निराश रहा है।  दरअसल आधुनिक लेखकों की चाहत रही है कि वह अपने लेखन से एक नये समाज का सृजन करें पर उनकी रचनायें समाज के किसी सत्य को उभारती तो हैं पर कोई निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं करती जिससे आम जनमानस प्रभावित नहीं होता।  अनेक फिल्में शुद्ध रूप से मनोरंजन के लिये बनी पर भारतीय जनमानस में वही स्थापित हो सकीं जिनमें कहंी न कहीं धार्मिक पुट था।  यही स्थिति संतों की रही है जो अध्यात्म के साथ मनोरंजन करते हैं उन्हें अधिक भक्त मिल जाते हैं। अनेक संत तो चुटकुल सुनाकर ही ंसंदेश देते हैं।  तय बात है कि यह कला केवल पेशेवर को ही आ सकती है।
                        अब समाज शहरों में स्थापित हो गया है। यहां के गांवों में भी अब पाश्चात्य संस्कृति पांव पसार चुकी है पर जनमानस की प्रवृत्ति में बदलाव नहीं आया। यही कारण है कि अध्यात्म ज्ञान के नाम पर पेशेवर संतों की लोकप्रियता बढ़ रही है।  जब भारत में टीवी ने जनमानस में जगह बनायी तब पेशेवर संतों को अपने यहां भक्तों के टोटे पड़ने लगे थे। ऐसे में उन्होंने टीवी की तरफ रुख किया।  बात अगर टीवी की करें तो बुनियाद और हम लोग जैसे शुद्ध सामाजिक धारावाहिकों ने लोकप्रियता पायी पर लोग आज भी रामायण और महाभारत का नाम याद करते हैं। सामाजिक धारवाहिकों के लेखक भीष्म साहनी का नाम आम जनमानस में स्थापित तक नहीं है जबकि महर्षि बाल्मीकि, वेदव्यास तथा कविवर तुलसीदास का नाम शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसे याद न हो।  प्रगतिशील लेखकों के लिये यह स्थिति निराशाजनक होती है।  यही कारण है कि वह आज भी समाज में पढ़े लिखे को विकसित और अपढ़ को पिछड़ा मानते हैं।  यह अलग बात है कि हम जैसे अध्यात्मिकवादी लेखक यह मानते हैं कि मनुष्य के मूल स्वभाव का अक्षर शिक्षा से कोई संबंध नहीं होता।  भारतीय जनमानस में अध्यात्म का विषय स्वभाविक रूप से होता है और वह सांसरिक विषयों के हर रंग में उसे देखना चाहता है। यही कारण है कि कोई कहानी, कविता, फिल्म या तस्वीर अगर उसके अध्यात्म को नहीं छूती तो वह उसे अधिक मान्यता नहीं देता।  यही कारण है कि अनेक चित्रकार, फिल्मकार तथा साहित्यकार ऐसे हुए हैं जिन्होंने सांसरिक विषयों पर अपनी रचनायें कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता प्राप्त की पर भारतीय जनमानस अपने जननायक के रूप में उनको जानता तक नहीं, मानना तो दूर की बात है।
                        अक्सर कुछ बुद्धिमान लोग पेशेवर संतों के पास जाने वाली भीड़ को अज्ञानी, अंधविश्वासी और रूढ़िवादी कहकर चिढ़ाते हैं। यह भी कह सकते हैं कि वह स्वयं अपनी ही खीज निकालते हैं जिस पर समाज कान नहीं देता। वह लोगों से इन धार्मिक कार्यक्रमों में न जाने की बात तो कहते हैं पर इसका विकल्प नहीं बताते। अंधविश्वास से दूर रहो पर विश्वास किस पर करें, इसका बुद्धिमान लोग उत्तर नहीं दे पाते।  ऐसे बुद्धिमान समाज के चक्षु पटल पर अपना चेहरा देखने के लिये उत्सुक रहते हैं पर जब उनको निराशा होती है तो वह चिल्लाते हैं कि जो लोग हमें नहंी सुन रहे वह गंवार है।  वह भारतीय जनमानस की इस प्रवृत्ति को समझ नहीं पाये कि यहां बिना अध्यात्म यानि आदमी की आत्मा को छूए बिना उसे पाया नहीं जा सकता।  दूसरी बात यह भी कि अंधविश्वासों का विरोध आधुनिक समय में ही नहीं हुआ पहले भी हुआ है। पुराने समय में  गुरुप्रवर श्रीगुरुनानक जी, संत प्रवर कबीर और कविवर रहीम ने पूरा जीवन ही समाज के सुधार में व्यतीत किया।  हमारे देश के अनेक महानुभावों ने अंधविश्वास का विरोध किया पर साथ में अध्यात्मिक ज्ञान का विश्वास भी दिखाया।  ऐसी महान विभूतियों को भारतीय जनमानस अपने हृदय में जो स्थान देता है उसे देखकर आधुनिक लेखकों का निराश होना स्वभाविक है पर सच्चाई को बदला नहीं जा सकता। सत्य ही ज्ञान है और ज्ञान ही सत्य है। मृत्यु भी सत्य है पर सत्य तो जीवन भी है। इस संसार में प्रलय आ जायेगी तो सभी नष्ट हो जायेगा ऐसा कहते हैं पर सच यह है कि कुछ न कुछ तो रहेगा ही।  पेड़ न रहे तो पत्थर रहेंगे। कहने का अभिप्राय यह है कि अवशेष तो हर हालत में रहेंगे। 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप
ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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