यह तो एक माना हुआ सत्य है कि कैमरा किसी भी वस्तु, व्यक्ति या दृश्य की सुंदरता को बयान कर सकता है पर वह आंतरिक खूबसूरती वह नहीं देख पाता। अनेक बार इंटरनेट पर ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं जिनमें कोई वस्तु, प्राकृतिक दृश्य या व्यक्ति का आकर्षण देखते ही बनता है। खासतौर से जिन कैमरों के पास कृत्रिम रोशनी है वह चेहरे को गुलाबी बना देते हैं। हमने देखा है कि अनेक वस्तुओं, व्यक्तियों या प्रकृतिक दृश्यों की खूबसूरती तस्वीर में दिखती हे पर वास्तविकता में निकट जाने पर वैसा अहसास नहीं रहता। कहते हैं कि कैमरा धोखा नहीं खाता पर वह देता है यह बात तय है।
हमने अपने शहर के एक चौराहे का फोटो देखा। बहुत खूबसूरत दिखता है पर जब वहां जाते हैं तो वह अहसास नहीं रहता। इसका कारण यह है कि कैमरे पर दिख रहे फोटो में केवल आंख काम कर रही होती है जबकि उस चौराहे पर खड़े होने पर हमारे कान, नाक तथा पांव भी सक्रिय रहते हैं। नाक में वाहनों से निकल रहा धुंआं, कानों में पों पों का गरजता स्वर और भीड़ में अपनी जगह तलाश रहे पांव दिमाग के लिये तनाव का कारण बनते हैं। उस समय वहां का दृश्य कोई सौंदर्य पैदा करता नज़र नहीं आता। तब लगता है कि किसी तरह अपना काम हो तो वहां से चलते बने।
दूर की बात क्या करें? पास में ही ताजमहल है। अनेक मौसमों में जाने का अवसर मिला है। कभी गर्मी में गये तो कभी बरसात में कभी सर्दी में वहां जाकर दृश्य निहारा। गर्मी में हवायें अपना रौद्र रूप दिखाते हुए शरीर को हिला देती हैं। बरसात में नमी से शरीर में निकलता पसीना सांस लेना दूभर कर देता है। सर्दी में जरूर राहत मिलती है पर चिंता इस बात की रहती है कि रात होते होते शरीर सर्दी हो जायेगी और हम अपने सुरक्षित स्थान की तरफ निकल पड़ते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि पर्यावरण प्रदूषण से वहां पीले होते ताजमहल को देखकर यह लगता है कि इससे तो इसकी तस्वीर ही अच्छी थी।
तस्वीरें सच बोलती हैं पर उसके दृश्य वास्तविकता निकट होने पर वैसा ही आनंद दे पायेंगे इस पर यकीन करना कठिन है।
फिल्मों में अनेक सुंदरियां देश के युवा जनमानस पर राज कर रही हैं। उस दिन एक चैनल ने बिना मेकअप की यही सुंदरियां दिखाईं। हैरानी की बात है कि इनमें से एक को भी पहचानना कठिन हो रहा था। अनेक पुरानी नायिकायें जब पर्दे पर भूले भटके दिखती हैं तब उन्हें पहचानने के लिये अपने चक्षुओं को भारी कष्ट देना पड़ता है। उनके सौंदर्य पर पुराना यकीन जब टूटताा तो दिल अकेला ही खड़ा होकर कांपता दिखता है।
अरे साहब, हम दूसरों की क्या बात करें? अपना हाल भी ऐसा ही कुछ है। फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग पर हमने टोपी पहने फोटो प्रकाशित कर रखें हैं। उनमें अपनी सूरत देखकर खूशी होती है पर सच्चाई हम जानते हैं। कभी कभी आइने में गौर से शक्ल देखते हैं तो मन में भारी निराशा होती है। तब मोबाईल में अपना फोटो देखकर तसल्ली करते हैं कि हमारा चेहरा इतना बुरा भी नहीं है। उस दिन एक पत्रिका के संपादक ने ईमेल कर हमारा फोटा मांगा। हमने लिख कर भेजा कि अभी तत्काल रूप से कोई फोटो तो उपलब्ध नहीं है और जब उसे कंप्युटर पर लायेंगे तो भेज देंगे। वैसे भी हमारा बचपन से एक ही ख्वाब रहा है कि लोग भले ही लेखन की वजह से हमारा नाम पहचाने पर चेहरा न देखें तो ठीक ही है। चेहरा इतना बुरा नहीं है पर वह किसी को सौंदर्य बोध भी नहीं कराता।
कैमरे के साथ कैमरामेन की कलाकारी भी होती है। यही कारण है कि फिल्मों और टीवी चैनलों पर दिखने वाली अनेक सामग्रियों में जवान लोग बूढ़े का पात्र निभाते हैं। चेहरे पर एक भी झुर्री नहीं होती बस थोड़े बहुत बाल काले रंग से रंगे होते हैं। महिला पात्रों की स्थिति तो अधिक दिलचस्प होती है। फिल्म और धारावाहिकों में परदादी तक का पात्र निभाने वाली महिला पात्रों के बाल काले होते हैं। आखिर हमें कैमरे पर इतनी बातें लिखने का विचार कैसे आया? दरअसल हमने अपने मोबाइल से अपनी एक पुरानी टेबल का फोटो खींचा। उस पर कुछ लिखना तो दूर कागज रखना भी हम जैसे महान लेखक के लिये अपमानजनक है। फोटो में दूर से वह टेबल इतनी आकर्षित लग रही थी कि लिखा जाये तो बस इसी टेबल पर! कभी हम उस टेबल की तरफ देखते तो कभी मोबाइल में उसकी फोटो पर! तब मन में यह विचार आया कि कैमरा धोखा नहीं खाता पर देता तो है!
हमने अपने शहर के एक चौराहे का फोटो देखा। बहुत खूबसूरत दिखता है पर जब वहां जाते हैं तो वह अहसास नहीं रहता। इसका कारण यह है कि कैमरे पर दिख रहे फोटो में केवल आंख काम कर रही होती है जबकि उस चौराहे पर खड़े होने पर हमारे कान, नाक तथा पांव भी सक्रिय रहते हैं। नाक में वाहनों से निकल रहा धुंआं, कानों में पों पों का गरजता स्वर और भीड़ में अपनी जगह तलाश रहे पांव दिमाग के लिये तनाव का कारण बनते हैं। उस समय वहां का दृश्य कोई सौंदर्य पैदा करता नज़र नहीं आता। तब लगता है कि किसी तरह अपना काम हो तो वहां से चलते बने।
दूर की बात क्या करें? पास में ही ताजमहल है। अनेक मौसमों में जाने का अवसर मिला है। कभी गर्मी में गये तो कभी बरसात में कभी सर्दी में वहां जाकर दृश्य निहारा। गर्मी में हवायें अपना रौद्र रूप दिखाते हुए शरीर को हिला देती हैं। बरसात में नमी से शरीर में निकलता पसीना सांस लेना दूभर कर देता है। सर्दी में जरूर राहत मिलती है पर चिंता इस बात की रहती है कि रात होते होते शरीर सर्दी हो जायेगी और हम अपने सुरक्षित स्थान की तरफ निकल पड़ते हैं। सबसे बड़ी बात यह कि पर्यावरण प्रदूषण से वहां पीले होते ताजमहल को देखकर यह लगता है कि इससे तो इसकी तस्वीर ही अच्छी थी।
तस्वीरें सच बोलती हैं पर उसके दृश्य वास्तविकता निकट होने पर वैसा ही आनंद दे पायेंगे इस पर यकीन करना कठिन है।
फिल्मों में अनेक सुंदरियां देश के युवा जनमानस पर राज कर रही हैं। उस दिन एक चैनल ने बिना मेकअप की यही सुंदरियां दिखाईं। हैरानी की बात है कि इनमें से एक को भी पहचानना कठिन हो रहा था। अनेक पुरानी नायिकायें जब पर्दे पर भूले भटके दिखती हैं तब उन्हें पहचानने के लिये अपने चक्षुओं को भारी कष्ट देना पड़ता है। उनके सौंदर्य पर पुराना यकीन जब टूटताा तो दिल अकेला ही खड़ा होकर कांपता दिखता है।
अरे साहब, हम दूसरों की क्या बात करें? अपना हाल भी ऐसा ही कुछ है। फेसबुक, ट्विटर और ब्लॉग पर हमने टोपी पहने फोटो प्रकाशित कर रखें हैं। उनमें अपनी सूरत देखकर खूशी होती है पर सच्चाई हम जानते हैं। कभी कभी आइने में गौर से शक्ल देखते हैं तो मन में भारी निराशा होती है। तब मोबाईल में अपना फोटो देखकर तसल्ली करते हैं कि हमारा चेहरा इतना बुरा भी नहीं है। उस दिन एक पत्रिका के संपादक ने ईमेल कर हमारा फोटा मांगा। हमने लिख कर भेजा कि अभी तत्काल रूप से कोई फोटो तो उपलब्ध नहीं है और जब उसे कंप्युटर पर लायेंगे तो भेज देंगे। वैसे भी हमारा बचपन से एक ही ख्वाब रहा है कि लोग भले ही लेखन की वजह से हमारा नाम पहचाने पर चेहरा न देखें तो ठीक ही है। चेहरा इतना बुरा नहीं है पर वह किसी को सौंदर्य बोध भी नहीं कराता।
कैमरे के साथ कैमरामेन की कलाकारी भी होती है। यही कारण है कि फिल्मों और टीवी चैनलों पर दिखने वाली अनेक सामग्रियों में जवान लोग बूढ़े का पात्र निभाते हैं। चेहरे पर एक भी झुर्री नहीं होती बस थोड़े बहुत बाल काले रंग से रंगे होते हैं। महिला पात्रों की स्थिति तो अधिक दिलचस्प होती है। फिल्म और धारावाहिकों में परदादी तक का पात्र निभाने वाली महिला पात्रों के बाल काले होते हैं। आखिर हमें कैमरे पर इतनी बातें लिखने का विचार कैसे आया? दरअसल हमने अपने मोबाइल से अपनी एक पुरानी टेबल का फोटो खींचा। उस पर कुछ लिखना तो दूर कागज रखना भी हम जैसे महान लेखक के लिये अपमानजनक है। फोटो में दूर से वह टेबल इतनी आकर्षित लग रही थी कि लिखा जाये तो बस इसी टेबल पर! कभी हम उस टेबल की तरफ देखते तो कभी मोबाइल में उसकी फोटो पर! तब मन में यह विचार आया कि कैमरा धोखा नहीं खाता पर देता तो है!
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप
ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja "Bharatdeep"
Gwalior Madhyapradesh
कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
http://rajlekh-patrika.blogspot.com
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2 टिप्पणियां:
caimra dhoka nahi khata deta to hai!sundar vyang rachana hai.shayad log yathartta ka samna nahi karna cahte ya yu keh lijiye ki sach ka samna nahi karna cahte,kyoki kabhi-kabhi DHOKE me rahna bhi accha lagta hai.
caimra dhoka nahi khata deta to hai!sundar vyang rachana hai.shayad log yathartta ka samna nahi karna cahte ya yu keh lijiye ki sach ka samna nahi karna cahte,kyoki kabhi-kabhi DHOKE me rahna bhi accha lagta hai.
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