किराये के भगवान
पैसे के लिये रोते और हंसते हैं,
ज़माने में फुरसत पाये
लोगों की कमी नहीं हैं,
खेलते देख भगवान को
ताली बजाते
और रोने लगें तो
उनके आंसु भी बहते हैं,
आंख के अंधे और गांठ के पूरे लोग
प्रचार के जाल में यूं ही फंसते हैं।
--------
अब रोना और हंसना
दौलत और शोहरतमंदों को ही आता है,
शायद आम आदमी की हंसी हो गयी हवा
आंखों के सूख गये आंसु
इसलिये प्रचार में सजी तस्वीरों में
वह हड्डियों और मांस का
एक बेकार पुतला नज़र आता है।
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बाज़ार के भगवान
पता नहीं क्यों रो दिये,
मगर सौदागरों के सभी भौंपू
उनकी आवाज़ के संग हो लिये।
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पैसे के लिये रोते और हंसते हैं,
ज़माने में फुरसत पाये
लोगों की कमी नहीं हैं,
खेलते देख भगवान को
ताली बजाते
और रोने लगें तो
उनके आंसु भी बहते हैं,
आंख के अंधे और गांठ के पूरे लोग
प्रचार के जाल में यूं ही फंसते हैं।
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अब रोना और हंसना
दौलत और शोहरतमंदों को ही आता है,
शायद आम आदमी की हंसी हो गयी हवा
आंखों के सूख गये आंसु
इसलिये प्रचार में सजी तस्वीरों में
वह हड्डियों और मांस का
एक बेकार पुतला नज़र आता है।
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बाज़ार के भगवान
पता नहीं क्यों रो दिये,
मगर सौदागरों के सभी भौंपू
उनकी आवाज़ के संग हो लिये।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet, writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
http://dpkraj.wordpress.com
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1 टिप्पणी:
मानसिक दिवालियेपन पर अच्छा आलेख।
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
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