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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

2/02/2011

राजलुटेरे कभी ऋषि नहीं बन सकते-हिन्दी व्यंग्य (lutere aur rishi-hindi comic article)

पूर्व मंत्री और घोटालों के राजा को केंद्रीय जांच संस्था ने गिरफ्तार कर लिया। इसका राजनीतिक, वैधानिक तथा सामाजिक पक्ष तो सभी समझ सकते हैं। एक टीवी चैनल पर एक दक्षिण भारतीय राजनीतिक विशेषज्ञ की इस बात पर यकीन किया जाये कि राजा साहब को उनका दल भी कल अपनी आमसभा के बाद अपने घर से निकाल देगा-मतलब उनकी सदस्य समाप्त कर देगा।
वैसे तो यह माना जा रहा है कि राजा साहब के दल और केंद्रीय दल के बीच रस्साकशी होगी पर दक्षिण भारतीय राजनीतिक विशेषज्ञ ने बताया कि उनके दल का ही एक समूह उनको पंसद नहीं करता। कुछ लोग तो पहले ही उनको दल से निकालने की मांग कर चुके हैं। बहरहाल भारत में अब तक के कथित रूप से एक लाख उन्नासी करोड़ रुपये के घोटाले में खलनायक की छबि बना चुके राजा साहब की स्थिति को देखकर महर्षि बाल्मीकी की बहुत याद आ रही है। राजा साहब के साथ अब कोई नहीं है पर जब वह राजकीय संपत्ति को अपना समझकर लुटा रहे थे तब उनको इस बात का अहसास नहीं था कि उनके इस कार्य से लाभार्थी लोग समय आने पर उनको अकेला छोड़ देंगे। इतने बड़े घोटाले में वह अकेले बड़े आदमी नहीं हो सकते। उनके लाइसेंस के परमीशन में खेल में कई लोगों ने प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से कमीशन या डोनेशन लिया होगा। निजी रिश्तेदारों ने तो मजे किये ही दोस्तों ने भी कम माल नहीं बनाया होगा। मगर जेल सभी नहीं जा रहे। हालांकि राजासाहब की अकेले भी जेलयात्रा नहीं हो रही साथ में कुछ निजी अनुचर भी हैं पर मुश्किल यह है कि बड़े कद के वह अकेले आदमी हैं और इतिहास ने उनकी गिरफ्तारी को भ्रष्टाचार के आरोप में सबसे बड़ी गिरफ्तारी माना है-ऐसा प्रचार माध्यम कहते हैं। तय बात है कि जब आप घोटालों में राजा होंगे तो आपका पतन भी इतिहास में ऐसे ही दर्ज होगा।
उनका क्या होगा, यह तो भविष्य ही बतायेगा मगर जब यह प्रकरण चल रहा था तब राजा साहब जिस तरह मुस्करा रहे थे उससे लगता था कि अपने कार्य से लाभार्थी लोगों से उनको आसरा था मगर अब!
महर्षि बाल्मीकि के बारे में कहना सूरज को दीपक दिखाना है मगर सच बात यह है कि वह मगर भगवान श्री राम जी के चरित्र पर रामायण जैसा महाग्रंथ न लिखते और केवल भक्ति पूर्वक राम राम जपते ही अपना जीवन गुजारते तो भी उनका नाम उनकी स्वयं की दो निजी कथाओं के कारण अमर होता। एक कथा के अनुसार बाल्मीकी पहले लुटेरे थे। यह काम बरसों तक किया। एक दिन वह लूटने के लिये घात लगाये बैठे थे तो देखा कुछ संत लोग आ रहे हैं। उनको लूटनें के लिये वह अपना फरसा लेकर डट गये । जब संत उनके पास आये तो वह अपना फरसा लेकर उनके पास पहुंच गये और बोले-‘जो भी माल असबाब हो वह मुझे दो या फिर मरने के लिये तैयार हो जाओ।’
संतों ने कह कि-‘ठीक है, पर तुम यह पाप कर रहे हो उसके लाभार्थी अपने परिवार के सदस्यों से यह पूछकर आओ कि क्या वह इसके दंड में भी यमराज के दंड सामने तुम्हारे सहभागी बनेंगे?’’
बाल्मीकि ने पहले ना-नुकर की मगर फिर पहुंच गये अपने परिवार के सदस्यों के पास यह पूछने के लिये कि‘यमराज के सामने उनके पाप के दंड में कौन कौन सहभागी बनेगा?’’
सभी का उत्तर एक जैसा था कि ‘हमें पालना तुम्हारा जिम्मा है। चाहे जैसा पालो, पर हम तुम्हारे पाप के दंड में भागी नहीं बनेंगे।
उनके ज्ञान चक्षु खुल गये। वह बाल्मीकि डकैत ऐसा बदला कि आज हम उनको महर्षि बाल्मीकि कहते हैं और नाम भले ही उनका कम लिया जाता है पर भक्त लोगों के हृदय में भगवान से दर्जा कम नहीं है।
उनकी दूसरी कथा यह कि उनको संतों ने राम राम जपने का मंत्र दिया पर वह उसे भूल गये पर भक्ति में लीन रहने लगे। एक दिन वह एक तालाब के किनारे टहल रहे थे कि किसी शिकारी ने आपस में क्रीड़ारत क्रोंच पक्षी के जोड़े में से नर को तीर मार दिया जिससे वह पेड़ से जमीन पर गिरा और मर गया। उनके मुख से निकला‘मरा, मरा।’
तब उन्हेें याद आया कि वह तो राम के नाम का वह मंत्र जो संतों ने दिया था। उसके बाद रामायण नाम के उस महाग्रंथ की रचना हुई जिसका दुनियां में कोई सानी नहीं है। सच तो यह है कि महर्षि बाल्मीकी के निजी जीवन की यह दो कथायें ही बहुत बड़े अध्यात्मिक संदेश प्रदान करने वाली हैं। एक तो यह कि आप चाहे जो भी करते हों उसके जिम्मेदार आप हैं। आपके कृत्य या दुष्कृत्य का अच्छा और बुरा परिणाम आपके नाम ही चढ़ना है, दूसरे लाभार्थी अच्छे परिणाम तक ही आपके साथ हैं, बुरा वक्त आने पर उनसे अपेक्षा न करिये। दूसरा यह कि अभ्यास करते रहिये आपको अध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हो जायेगा। राजा चाहे होटलों के बनो या घोटालों के आपके दुष्कर्म आपका पीछा करेंगे।
इस देश के बड़े लोगों का आचरण देखकर हैरानी होती है। पेट से ज्यादा बैंक के खातों की फिक्र है। भारतीय अध्यात्मिक दर्शन को केवल हिन्दू धर्म तक सीमित मानकर उनकी उपेक्षा करने वाले लोग धर्मनिरपेक्ष होनें का दिखावा करते हैं पर उनको यह मालुम ही नहीं कि यह सिद्धांत तो ठगों, चोरों, डकैतों, लुटेरों और बेईमानों का है। अपराधी अपने शिकार करते समय किसी का धर्म, जाति, या समूह नहीं देखते। तय बात है कि हमने विदेशी व्यवस्था का अनुसरण कर अपने समाज में नकारा और नीच प्रवत्तियोंु का समाज बनाने का प्रयास किया है।
बार बार सवाल एक मन में आता है कि सारे डकैत और लुटेरे सुधरते क्यों नहीं? तब जवाब भी हमारे दिमाग में आता है कि सभी ऐसे संत कहां मिलते हैं जो महर्षि बाल्मीकि को मिले। देश की हालत देखकर को तो महर्षि बाल्मीकी से कम उन संतों के प्रति कृतज्ञता से भर उठता है जिन्होंने उनका हृदय परिवर्तन किया। ऐसे संत मिल गये तो महर्षि बाल्मीकी ने रामायण जैसा ग्रंथ लिखकर कौनसा तीर मार लिया? बाल्मीकि महाराज को ही उन अज्ञात संतों का आभारी होना चाहिए था जिन्होंने जेल जाने से पहले ही उनके अपराधों से दूर कर दिया वरना फंस जाते एक बार तो अंदर ही फंसकर मरा मरा करके रह जाते।
वैसे बाल्मीकि से घोटालों के राजा की तुलना करना बेकार है। महर्षि बाल्मीकी का तो पेशा था लुटना तो लूटते रहे, फिर भक्त बने तो उसी राह का अनुसरण पर यह तो राजासाहब पहरेदार बनकर राजद्वार पर आये थे। लूट के लिये राजद्वार पर खड़े व्यक्ति के पास संत समझाने आयेंगे यह सोचना भी कठिन है क्योंकि उनके लिये तो राजद्वार तो क्या राजमार्ग ही कंटकमय होता है जहां सिद्ध लोग जाना पसंद नहीं  करते। इसलिये सभी राजलुटेरे यानि भ्रष्ट लोग कभी ऋषि नहीं बन सकते।
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A raja,CBI,2Gspactrum

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com
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