समस्त ब्लॉग/पत्रिका का संकलन यहाँ पढें-

पाठकों ने सतत अपनी टिप्पणियों में यह बात लिखी है कि आपके अनेक पत्रिका/ब्लॉग हैं, इसलिए आपका नया पाठ ढूँढने में कठिनाई होती है. उनकी परेशानी को दृष्टिगत रखते हुए इस लेखक द्वारा अपने समस्त ब्लॉग/पत्रिकाओं का एक निजी संग्रहक बनाया गया है हिंद केसरी पत्रिका. अत: नियमित पाठक चाहें तो इस ब्लॉग संग्रहक का पता नोट कर लें. यहाँ नए पाठ वाला ब्लॉग सबसे ऊपर दिखाई देगा. इसके अलावा समस्त ब्लॉग/पत्रिका यहाँ एक साथ दिखाई देंगी.
दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

10/02/2008

‘नुक्ताचीनी साहब जो कहें सो ठीक’-हास्य व्यंग्य

भरी दोपहर में दीपक बापू अपनी साइकिल पर चले जा रहे थे कि अचानक चैन उतर गयी। दीपक बापू साइकिल के चैन उतरना ऐसे ही अशुभ मानते थे जैसे रात में उल्लू का बोलना। फिर भी उन्होंने अपने दिल को समझाया कोई बात नहीं ‘अभी चैन चढ़ाकर दौड़ाते हैं’।
वह साइकिल से उतरे। दो दिन पहले ही उन्होंने साइकिय में तेल डलवाया था और चैन अभी उसमें नहाई हुई थी। वह उसे चढ़ाने लगे तो उनके हाथ काले होते चले गये।
चैन चढ़ाकर उन्होंने इधर उधर देखा कि कहीं उनकी यह दुर्दशा देखने वाला कोई कवि या लेखक तो नहंी है जो इस पर लिख सके। पहले दाएं तरफ देखा। लोगों में किसी का ध्यान उनकी तरफ नहीं था। तसल्ली हो गयी पर जैसे ही बायें तरफ मूंह किया तो होठों से निकल पड़ा-‘एक नहीं दो संकट एक साथ आ गये।’

फंदेबाज और नुक्ताचीनी साहब अपनी मोटर साइकिलों पर बैठकर कहीं जा रहे थे और फंदेबाज ने दीपक बापू को देख लिया। उसने नुक्ताचीनी साहब को इशारा किया। दोनों गाड़ी मोड़कर उनके सामने आ गये। दीपक बापू अपनी साइकिल की चैन चढ़ाने से उखड़ी सांसों को राहत दे नहीं पाये थे कि दोनों संकट उनके सामने आ गये।

फंदेबाज तो वह शख्स था जिसने उनकी कलम की धार ऐसी बिगाड़ी थी कि कविता लिखते तो बेतुकी हो जाती, व्यंग्य रोता हुआ बनता और चिंतन एक चुटकुले की तरह लगने लगता।

दीपक बापू बहुत समय पहले नुक्ताचीनी साहब के यहां एक बार गये थे तो वहां अच्छा कवि और लेखक न बनने की शाप लेकर लौटे । वैसे नुक्ताचीनी उम्र में दीपक बापू से सात आठ साल बड़े थे और उनका रुतवा भी था। हुआ यूं कि नुक्ताचीनी साहब का एक मित्र दीपक बापू से कोई शायरी लिखवा गया। उसने दीपक बापू को बताया कि एक शायर की प्रेमिका का दिल अपहृत करना है और इसके लिये काई शायरी जरूरी है। वह भी दीपक बापू से आयु में बड़ा था इसलिये उन्होंने आदर पूर्वक एक छंटाक भर शायरी उसे लिख कर दे दी। वह असल में नुक्ताचीनी साहब का प्रतिद्वंद्वी था और प्रेम त्रिकोण में उनको पराजित करना चाहता था। दीपक बापू ने एक पर्ची लिखकर दी फिर वह उसे भूल गये, मगर नुक्ताचीनी साहब ने जो दर्द उस शायरी से झेला तो फिर वह इंतजार करने लगे कि कभी तो वह शिकार आयेगा अपने लेखक और कवि होने का प्रमाण पत्र मांगने। आखिर शहर भर के अनेक लेखक उनको सलाम बजाते थे। यह अलग बात है कि जिन्होंने उनकी शरण ली वह नुक्ताचीनी साहब की सलाहों का बोझ नहीं उठा सके और लिखना ही छोड़ गये।

जब दीपक बापू आधिकारिक रूप से लेखक और कवि बनने को तैयार हुए यानि अपनी रचनायें इधर उधर भेजने का विचार किया तो किसी ने सलाह दी कि पहले अपनी रचनायें नुक्ताचीनी साहब को दिखा दो।

वह बिचारे अपनी साइकिल पर फाइल दबाये नुक्ताचीनी साहब के घर पहुंचे। तब तक उनका विवाह भी हो गया था पर पुराना दिल का घाव अभी भरा नहीं था। दीपक बापू को देखते ही वह बोले-‘आओ, महाराथी मैं तुम्हारा कितने दिनोंे से इंंतजार कर रहा हूं। तुम वही आदमी हो न! जिसने मेरे उस दोस्त रूपी दुश्मन को वह शायरी लिखकर दी थी जिसने मेरी प्रेयसी का दिल चुरा लिया।’

दीपक बापू तो हक्का बक्का रह गये। फिर दबे स्वर में बोले-‘साहब, वह तो आपका मित्र था। मुझे तो पता ही नहीं। आप दोनों मेरे से बड़े थे। भला मैं क्या जानता था। मैंने तो उसे बस एक छंंटाक भर शायरी लिखकर कर दी थी। मुझे क्या पता वह उसका उपयोग कैसे करने वाला था। अब तो आपसे क्षमा याचना करता हूं। आप तो मेरी इन नवीनतम रचनाओं पर अपनी दृष्टि डालिये। अपनी सलाह दीजिये ताकि इनको कहीं भेज सकूं।’

नुक्ताचीनी साहब बोले-‘बेतुकी शायरियां लिखते हो यह मैं जानता हूं। छंटाक भर की उस शायरी ने मेरे को जो टनों का प्रहार किया उसे मैं भूल नहीं सकता। लाओ! अपनी यह नवीनतम रचानायें दिखाओ! क्या लिखा है?’

दीपक बापू ने बड़ी प्रसन्नता के साथ पूरी की पूरी फाइल उनके सामने रख दी। उन्होंने सरसरी तौर से उनको देखा और फिर जोर से पूरी फाइल उड़ा दी। सभी कागज हवा में उड़ गये और जमीन पर ऐसे ही गिरे जैसे कभी नुक्ताचीनी साहब के दिल टुकड़ होकर कोई यहां तो कोई वहां गिरा था। उन्होंने कुटिलता से मुस्कराते हुए कहा-‘बेकार हैं सब। दूसरा जाकर लिख लाओ। कवितायेंे बेतुकी हैं। व्यंग्य रुलाने वाले हैं और चिंतन तो ऐसा लगता है कि जैसे कोई गमगीन चुटकुला हो। तुम कभी भी कवि और लेखक नहीं बन सकते। मेरे विचार से तुम कहीं क्लर्क बन जाओ। वहां भी पत्र वगैरह लिखने का काम नहीं करना क्योंकि तुम्हारी भाषा लचर है।’

दीपक बापू अपने कागज समेटने में लग चुके थे। वह बोले-‘नुक्ताचीनी साहब आप जो कहैं सो ठीक, पर अच्छे होने का वरदान या बुरे होने का शाप तो दे सकते हैं पर लेखक और कवि न बन पाने की बात कहने का हक आपको नहीं है। हम बुरे रहे या अच्छे लेखक और कवि तो रहेंगे। जहां तक प्रभाव का सवाल है तो वह छंटाक भर की शायरी जो काम कर गयी। उसे तो आप जानते हैं।

यह बात सुनते ही नुक्ताचीनी साहब चिल्ला पड़े-‘गेट आउट फ्राम हियर (यहां से चले जाओ)।’
दीपक बापू वहां से हाथ एक हाथ में फाइल और दूसरे हाथ में साइकिल लेकर वहां से ऐसे फरार हुए कि नुक्ताचीनी साहब के घर से बहुत दूर चलने पर उनको याद आया कि साइकिल पर चढ़कर चला भी जाता है।

कई बार नुक्ताचीनी साहब रास्ते पर दिखाई देते पर दीपक बापू कन्नी काट जाते या रास्ता बदल देते। कहीं किसी दुकान पर दिखते तो वहां चीज खरीदना होती तब भी वहां नहीं जाते।

आज फंदेबाज उन्हीं नुक्ताचीनी साहब को लेकर उनके समक्ष प्रस्तुत हो रहा थां दीपक बापू यह नहीं समझ पा रहे थे कि उनके इन दोनों प्रकार के संकट का आपसे में लिंक कैसे हुआ!

फंदेबाज बोला-‘अच्छा ही हुआ यहां तुम मिल गये। बड़ी मुश्किल से इन नुक्ताचीनी साहब से मुलाकात का समय मिला। यह बहुत बड़े साहित्यक सिद्ध हैं। इनकी राय लेकर अनेक लोग बड़े लेखक और कवि बन गये हैं ऐसा मैंने सुना था। मैं साइबर कैफे में अंतर्जाल पर तुम्हारी पत्रिकायें दिखाने जा रहा था। उस पर यह अपनी राय देंगे। मैं चाहता हूं कि तुम्हारे ऊपर लगा फ्लाप लेखक का लेबल हट जाये और हिट बन जाओ। इसलिये इनको साथ ले जा रहा हूं कि शायद यह कोई नया विचार दें ताकि तुम हिट हो जाओ।

इससे पहले ही कि दीपक बापू कुछ कहते नुक्ताचीनी साहब उनके पास पहुंच गये और बोले-‘तो वह तू है। जिसकी इंटरनेट पर पत्रिकायें हैं और यह मुझे दिखाने ले जा रहा था। तू ने अभी तक लिखना बंद नहीं किया और अब मुझे शराब की बोतल और नमकीन का पैकेट भिजवाकर अपनी अंतर्जाल पत्रिकाओं के बारे में बताकर अपनी बात जंचाना चाहता है। अब सौदा किया है तो चल देख लेते हैं तेरी उन आकाशीय करतूतों को।’

दीपक बापू ने हाथ जोड़ते हुए कहा-‘अब छोडि़ये भी नुक्ताचीनी साहब। यह मेरा दोस्त तो नादान हैं। भला आप ही बताइये बेतुकी कवितायें, रोते हुए व्यंग्य और चुटकुले नुमा िचंतन लिखकर भला कोई कहीं हिट हो सकता है। यह तो पगला गया है ओर दूसरो की तरह हमको भी हिट देखना चाहता है ताकि दोस्तों और रिश्तेदारों मेंें हमसे दोस्ती का रौब जमा सके।’

नुक्ताचीनी साहब ने कहा-‘तो तू अब अंतर्जाल की पत्रिकायें दिखाने में डर रहा है। तुझे लग रहा है कि हम तेरी लिखी रचनाओं का बखिया उधेड़ देंगे।’
दीपक बापू बोले-‘नहीं आप तो बड़े दयालू आदमी है। वैसे मेरी सभी रचनायें बिना बखिया की हैं इसलिये उधेड़ने का सवाल ही नहीं हैं।’
नुक्ताचीनी साहब ने कहा-‘यह तेरी टोपी,धोती और कुर्ते पर काले दाग क्यों हैं। शायद साइकिल की चैन ठीक कर रहा था। अरे तेरे को शर्म नहीं आती। हम जैसे बड़े आदमी को चला रहा हैं। चल अपनी अंतर्जाल पत्रिकायें दिखा। यह तुझे पसीना क्यों आ रहा है? हम देखेंगे तेरी बेतुकी कवितायें, रोते व्यंग्य और चुटकुले नुमा चिंतन।’
इस पर फंदेबाज उखड़ गया और बोला-‘लगता है आप मेरे इस दोस्त को पहले से ही जानते हैंं पर आप इनके पसीने का मजाक न उड़ायें। वैसे मैंने आपको शराब की बोतल और नमकीन का पैकेट इसके फ्लाप होने के कारणों को बताने के लिये नहीं बल्कि हिट होने के लिये राय देने के लिये किया है। आप इस तरह बात नहीं कर सकते। आपकी मोटर साइकिल में पैट्रोल भी भरवाया है।’

दीपक बापू ने फंदेबाज से कहा-‘चुप कर! तू जानता नहीं कितने बड़े आदमी से बात कर रहा है। एक बात समझ नुक्ताचीनी साहब जो कहें सो ठीक!’

फिर वह नुक्ताचीनी साहब से बोले-‘आप अभी चले जाईये। शराब की बोतल और नमकीन का पैकेट भी भला कोई चीज है किसी दिन मैं आपके घर आकर और भी सामान लाऊंगा। आप तो मेरे प्रेरणा स्त्रोत है। पहले थोड़ा अच्छा लिख लूं। फिर अपनी अंतर्जाल पत्रिकायें आपको दिखाऊंगा।’

नुक्ताचीनी साहब बोले-‘यकीन नहीं होता कि तुम कभी अच्छा लिखा पाओगे। पर अभी जाता हूं और तुम्हारा इंतजार करूंगा।’

उनके जाने के बाद फंदेबाज बोला-‘तुमने मेरा कम से कम पांच सौ रुपये का नुक्सान करा दिया।’

दीपक बापू बोले-‘यह बरसों से खाली बैठा है। लिखता कुछ नहीं है पर अपनी राय से कई लोगों का लिखवाना बंद कर चुका है। अगर कहीं इसने अंतर्जाल पर पत्रिकायें देखते हुए कहीं लिखना सीख लिया तो समझ लो कि अपना लिखना गया तो तेल लेने। अपने पुराने लिखे पर ही सफाई देते हुए पूरी जिंदगी निकल जायेगी। समझे!

वहां से फंदेबाज भी चला गया। दीपक बापू काले धब्बे की अपनी टोपी से ही अपने को हवा लेने लगे। वहां पास में ही एक चाय के ठेले के पास गये और वहां छांव में रखी बैंच पर बैठ कर हुक्म लड़के से कहा-‘एक कट चाय अभी ले आओ। दूसरी थोड़ी देर बाद लाना। डबल टैंशन झेला है और डबल कट बिना नहीं उतरेगा।’

फिर वह सोचने लगे कि आखिर उनसे यह किसने कहा था कि साइकिल की चैन का उतरना वैसे ही अशुभ है जैसे रात में उल्लू का घर की छत पर बोलना।’
-----------------------
यह आलेख मूल रूप से इस ब्लाग ‘अनंत शब्दयोग’पर लिखा गया है । इसके अन्य कहीं प्रकाशन के लिये अनुमति नहीं हैं। इस लेखक के अन्य ब्लाग।
1.दीपक भारतदीप का चिंतन
2.दीपक भारतदीप की हिंदी-पत्रिका
3.दीपक भारतदीप की शब्दयोग-पत्रिका
4.दीपक भारतदीप शब्दज्ञान-पत्रिका

1 टिप्पणी:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढिया लिखा ।पढ कर आनंद आ गया।

गाँधी जयंति की बहुत-बहुत बधाई।

लोकप्रिय पत्रिकायें

हिंदी मित्र पत्रिका

यह ब्लाग/पत्रिका हिंदी मित्र पत्रिका अनेक ब्लाग का संकलक/संग्रहक है। जिन पाठकों को एक साथ अनेक विषयों पर पढ़ने की इच्छा है, वह यहां क्लिक करें। इसके अलावा जिन मित्रों को अपने ब्लाग यहां दिखाने हैं वह अपने ब्लाग यहां जोड़ सकते हैं। लेखक संपादक दीपक भारतदीप, ग्वालियर