अपने घर भर पाते हैं
इसलिये ही मददगार कहलाते हैं
बसे रहें शहर
उनको कभी नहीं भाते हैं
टकीटकी लगाये रहते हैं
वह आकाश की तरफ
यह देखने के लिये
कब धरती पर कहर आते है
जब बरसते हैं वह
उनके चेहरे खिल जाते हैं
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संवेदनाओं की नदी अब सूख गयी है
कहर के शिकार लोगों पर आया था तरस
मन में उपजी पीड़ाओं ने
मदद के लिये उकसाया
पर उनके लुटने की खबर से
अपने दिल में स्पंदन नहीं पाया
लगा जैसे संवेदना की नदी सूख गयी है
कौन कहर का शिकार
कौन लुटेरा
देखते देखते दिल की धड़कनें जैसे रूठ गयी हैं
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लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप
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