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7/27/2008

‘चक दे इंडिया’ नहीं ‘सच देख इंडिया’-व्यंग्य

बहुत दिनों से सुनते आ रहे हैं ‘चक दे इंडिया’। जब देखों कोई थोड़ी बहुत अच्छी खबर होती है गूंजने लगता है टीवी चैनलों पर ‘चक दे इंडिया’‘। एक काल्पनिक कहानी पर फिल्म बनी जिसमें भारतीय महिला हाकी टीम को विश्वविजेता बता कर पूरे देश को भरमाने की कोशिश की गयी। सच तो यह है कि पिछले 25 वर्षों में भारत किसी भी खेल में विश्व कप जीता नहीं था पर एक फिल्म में काल्पनिक रूप से मिली जीत को भी एक सच की तरह भुनाया गया। भ्रम पैदा कर लोगों की भावनाओं से जुड़े व्यवसाय में किस तरह कमाई हो सकती है ऐसा उदाहरण अन्य कहीं नहीं मिल सकता।

अनेक विज्ञापन वाले अपने माडल कों किसी काल्पनिक प्रतियोगिता में जितवाकर अपने द्वारा विज्ञापित वस्तु दिखाते हुए उससे गंवाने लगते हैं ‘चक दे इंडिया’। कोई ‘रीयल्टी शो’ होता है तो उसमें कई बार प्रतियोगी गाने लगते हैं तो कई बार उस शो की समप्ति पर विजेता के सम्मान में भी गाया जाता है ‘चक दे इंडिया’। धीरे धीरे लोग इसे भूलने लगे थे पर क्रिकेट के बीस ओवरीय विश्व कप प्रतियोगिता जीतने पर तो जैसे प्रचार माध्यमों की उचट कर लग गयी। जिसे देखो वही बजाये जा रहा था। यहीं से उनको अवसर मिला। क्रिकेट में उसके बाद कोई भी छोटी मोटी जीत मिली तो यही गाना चैनलों पर सुनाई देता है। जब हार जाती है तो उसके लिये कोई मातमी धुन बजना चाहिए पर एसा कोई भी नहीं करता जबकि फिल्मों ने कई ऐसे मातमी गीत और संगीत के कार्यक्रम बना रखे हैं। जब टीम पिट जाती है उस समय अपने खिलाडि़यों को थोड़ा बहुत कोसकर अपने दायित्वों की इतिश्री कर लेते हैं।

काल्पनिक कहानियों से कुछ नहीं होता। फिल्म और उसके गीत क्षणिक रूप से आनंद प्रदान करते है, पर जीवन के लिये वह निरर्थक हैं। पहले लोग फिल्म देखकर भूल जाते थे और जो गाने जीवन के लिये थोड़ा बहुत अर्थ रखते थे तो उसे गुनागनाने लगते थे पर आज के प्रचार माध्यम तो उन गानों को भुनाने के लालायित रहते हैं। कई बार तो समाचार पत्र पत्रिकाएं अपने किसी सकारात्मक लेख या समाचार को प्रभावी बनाने के लिये लिख देते है ‘चक दे इंडिया’ ।

वैसे देखा जाये तो बजाय ‘चक दे इंडिया की जगह होना चाहिए ‘सच देख इंडिया‘। सच तो यह है कि इस लेखक को गीत नहीं लिखना आता वरना लिख देता ‘सच देख इंडिया’। अगर प्रयास भी किया तो तुक मिलाने के चक्कर में शब्द गड़बड़ा जायेंगे और अगर उनको ठीक रखने का प्रयास किया तो तुक नहीं बनेगी। चलिये इस पर एक गीतनुमा एक हास्य कविता लिखने का प्रयास करके देखते हैं।

सच देख इंडिया, सच देख इंडिया
ख्वाब देखा तो सच से मूंह फेर लिया
सच देख इंडिया
परदे पर देखा होगा, अपने लिये विश्व कप
पर कीर्तिमानों में देश को जीरो ने घेर लिया
सच देख इंडिया
हाकी में नहीं जा रही इंडिया की टीम
सच में कभी नहीं जमती, देश के जीत की थीम
सच देख इंडिया
दुनियां भर के खिलाड़ी दिखायेंगे बीजिंग में अपने जौहर
इंडिया में बैठकर देखेंगे, परायों को बीबी और शौहर
सच देख इंडिया
सास-बहु सीरियल में सुनकर धमाके दिल बहालाआगे
शहर में होने वाले असली धमाकों से कान नहीं बचा पाओगे
काल्पनिक कहानियां कितना भी डरायें
सच भयानक दृश्यों से ज्यादा डरावनी नहीं होती
उनमें कितना भी खूबसूरत अहसास हो
जिंदगी इतनी खुशनुमा भी नहीं होती
सच देख इंडिया
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हां, यह सच है कि यह गीत की तरह नहीं लिखा पर जब कड़वे सच हों तो शब्दों को बाहर आने देने से रोकना भी अच्छा नहीं लगता नहीं तो वह रुके हुए पानी की तरह अंदर ही अंदर गंदा होकर हृदय को खोखला कर देते हैं। कभी ‘ये है मेरा इंडिया’ तो कभी ‘मेड इन इंडिया’ तो कभी ‘चक दे इंडिया’ जैसे फिल्मी वाक्यों को जीवन में दोहराते रहने से सच नहीं बदल जायेगा। एक अजीब माहौल है। यहां दर्द है, संवेदना है और अभिव्यक्ति के साधन है पर फिर भी वह सब कुछ हो रहा है जिसे नहीं होना चाहिए। पहले कथा कहानियां सुनाकर इस देश को भ्रमित किया गया और फिल्म की काल्पनिक कहानियों से कुछ वाक्यांश लेकर उसमें देश के लोगों का दिल और दिमाग भटकाना एक व्यापार हो सकता है पर इससे पूरी कौम मानसिक रूप से कितनी कमजोर हो गयी है जो इंतजार करती है किसी घटना का ताकि उस संवेदना व्यक्त की जा सकें। आम आदमी का समझ में तो आ सकता है पर जिन लोगों खेल और समाज के संबंध में कुछ करने का दायित्व है उनकी नाकामी एक चिंता का विषय है। लोग अपनी तकलीफों के साथ जी रहे हैं उसे भुलाने के लिये वह इन काल्पनिक कहानियों में मन बहला रहे हैं पर समाज और राष्ट्र को आगे ले जाने वाला चिंतन और अध्ययन का भाव उनमें लुप्त होता जा रहा है। फिल्मी वाक्यांशों से इस देश की वास्तविकता नहीं बदल सकती। इसके लिये पहले ‘चक दे इंडिया’ की जगह कहना पड़ेगा ‘सच देख इंडिया’
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