माया का खेल बहुत विचित्र है। तमाम तरह के विद्वानों के संदेश पढ़ने के बावजूद मुझे इस संबंध में एक बात कहीं भी पढ़ने को नहीं मिली जो मैं कहना चाहता हूं। मैं सोचता था कि अगर किसी विद्वान के संदर्भ देकर यह बात कहता तो शायद प्रभावी होती पर उस तरह का कथन नहीं मिला। जब कोई लेखक किसी किताब से पढ़कर लिखने का अभ्यस्त हो जाता है तब उसके सामने यही समस्या आती है कि अपने मन की बात कहने के लिए भी उसे किताब की जरूरत पढ़ती है। अगर वह नहीं मिलती तो उसे अपनी बात कहने के लिए किसी ऐसे मूड की आवश्यकता होती है जब वह उसे लिख सके।
कुछ दिनों पहले समाचार पत्रों में मुझे पढ़ने को मिला कि वैष्णो देवी के दर्शन पहले करने हों तो कुछ पैसे भुगतान कर किया जा सकता है। बाद में सामान्य भक्तों के विरोध के कारण यह निर्णय संभवतः अभी लागू नहीं हो पाया। वैसे यह कोई नई बात नहीं है कि किसी मंदिर में सर्वशक्तिमान के समक्ष प्रस्तुत होने के लिए लगी भक्तों की पंक्ति से अलग हटकर विशिष्ट भक्त के रूप में कुछ धन व्यय कर प्राथमिकता के आधार पर प्रवेश प्राप्त हो। कहीं यह सुविधा नियमों में शामिल की गयी है तो कहीं यह स्वाभाविक रूप से ऐसे होता है कि आभास भी नहीं होता। अर्थात भक्त में दो भेद हैं-एक सामान्य भक्त और दूसरा विशिष्ट भक्त। सामान्य भक्त इस बात को जानते हैं पर वह भी यह एक तरह से स्वीकार कर लेते हैं जिस पर भगवान की कृपा से माया अधिक है उसे प्रथम दर्शन का अधिकार प्राप्त है।
माया का खेल बहुत निराला है। सत्य का खेल उससे भी निराला है। माया इतना विस्तार रूप लेती है कि उसे अपना प्रभाव बनाये रखने के लिए चरम पर आकर उसे सत्य की बराबरी करने की आवश्यकता अनुभव होती है। मगर सत्य तो सत्य है उसका माया से कोई वास्ता नहीं पर माया को धारण करने वाला भी वही सत्य है। धारण करने वाला स्वयं नहीं दिखता क्योंकि वह बुनियाद के पत्थर की तरह होता है जो दिखता नहीं है तो पुजता भी नहीं है। ऊपर खड़ी दीवारों को चमकदार रूप इसलिये दिया जाता है कि इमारत के अस्तित्व का बोध उनसे ही होता है। मायावी लोग भी सत्य की आड़ में कुछ ऐसा ही खेल खेलते हैं। उनको चाहिए बस माया पर सत्य और धर्म की आड़ में यह खेल इस तरह होता है कि समाज में भक्ति के नाम भ्रम पालने वाले लोग उसे सहजता से लेते है। आदमी के पास माया है पर मन में शांति नहीं है ऐसे में माया ही उसे प्रेरित करती है उन जगहों पर जाने के लिए और फिर माया अपनी शक्ति दिखाकर अपने अस्तित्व की सार्थकता प्रमाणित करती है।
एक नहीं अनेक बार मेरे सामने ऐसे अवसर आते हैं जब मुझे हंसी के अलावा कुछ नहीं सूझता। मैं बचपन से ही अध्यात्मिक प्रवृत्ति का हूं और मंदिरों में जाता हूं। हां, मुझे वहां शंाति मिलती है पर फिर भी मेरी अंधविश्वासों और पाखंड में कोई यकीन नहीं नहीं। मंदिरों में शांति इसलिये मिलती है कि हम कुछ देर के लिए अपने तन और मन को इस दुनियां से अलग ले जाते हैं जिसे ध्यान का ही मैं एक स्वरूप मानता हूं। सत्संगों में भी जाने में मुझे संकोच नहीं है पर मैं किसी संत व्यक्ति विशेष में अपनी भावनाओं के साथ लिप्त नहीं होता।
मैं एक आश्रम में गया। वहां संत अपने दर्शन भक्तों के दे रहे थे। वहां भीड़ बहुत थी। मेरी पत्नी तो पंक्ति में लग गयी पर मैं बाहर ही खड़ा रह गया। हम दोनों भीड़ में ऐसे अवसरों अलग-अलग हो जाने के आदी हो चुके हैं। मैंने इधर-अधर निरीक्षण किया तो देखा कि कुछ लोग दीवार के दूसरी तरफ एक अन्य पंक्ति में खड़े हैं पर उनकी संख्या आधिकारिक पंक्ति से बहुत कम थी। वहां से कुछ लोग तमाम तरह के उपहार लेकर संत के दर्शन उनके निकट के सेवकों की अनुमति से सहजतापूर्वक करने जा रहे थे। कुछ लोग ऐसे भी थे जिनके हाथों में कोई उपहार नहीं था पर वह भी प्रवेश कर रहे थे जो शायद उन सेवको के लिये अन्यत्र लाभ पहुंचाने वाले होंगे। मेरे लिए यह सामान्य बात होती है क्योंकि बचपन से अनेक बार ऐसे भेदभाव देखता आया हूं।
कुछ देर बाद मेरा एक परिचित वहां आया और मेरा अभिवादन किया। मैंने बातचीत करते हुए उससे पूछा-‘तुमने संत जी के दर्शन कर लिए होंगे?
वह एकदम सीना तानकर बोला-‘और क्या? मैंने तो विशिष्ट भक्तों की पंक्ति में खड़े होकर उनके दर्शन किए। ऐसे सामान्य भक्तों की पंक्ति में मैं खड़ा होने वाला नहीं था।’
मैं हंस पड़ा। भक्ति में इस तरह से अहंकार की बात कहने वाला भी वह पहला व्यक्ति नहीं था-इस तरह की विशिष्ट अनेक लोग अनेक अवसरों पर दिखा जाते हैं। बस घटना का स्थान ही बदला हुुआ होता है। मैंने उसके व्यक्तित्व की झूठी प्रशंसा करने में भी कोई कमी नहीं की। इसमें भी मेरा अपना दर्शन चलता है कि ‘अगर मेरे शब्दों से कोई प्रसन्न होता है तो उसमें क्या हर्ज है उससे कोई लाभ तो नहीं उठा रहा जो मुझे मानसिक संताप होगा। किसी की झूठी प्रशंसा कर लाभ उठाना ही मुझे अखरता है।
यह माया का खेल है जो परमात्मा के दर्शन करने का सामथर््य दिखाती है। संत शिरोमणि रविदास कहते हैं कि ‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ मगर माया है कि मन चंगा नहीं रहने देती वह तो गंगा के तट पर दौड़ लगवाती है ताकि उसके अस्त्तिव की अनुभूति मनुष्य मन में बनी रहे। मेरा स्पष्ट मानना है कि आप औंकार से निरंकार की तरफ जाना ही सत्य को जानने की प्रक्रिया है-जिसे साकार से निराकार की और जाने वाला मार्ग भी कहते है। इन दैहिक चक्षुओं के द्वारा मूर्तियों को देखकर सर्वशक्तिमान का स्वरूप अपने मन में स्थापित कर ध्यान करते हुए निरंकार की तरफ हृदय को केंद्रित करना चाहिए।
आप देश के जितने भी प्रसिद्ध मंदिरों को देखते हैं वह सभी सुंदर प्राकृतिक स्थानों पर स्थित हैं। ऐसे अनेक स्थान जो प्रकृति की दृष्टि से संपन्न हैं पर वहां कोई मंदिर नहीं है तो वह भी पर्यटकों को आनंद देते हैं। जहां मंदिर हैं वहां ऐसे लोग अधिक जाते हैं जो हृदय में पर्यटन का भाव लिये होते हैं पर अपने आपको ही भक्ति का भ्रम देने लगते हैं। ऐसे मेें जो लोग इन स्थानों की देख रेख करते हैं उनके दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। वह एक तरह से व्यवसायी हो जाते हैं पर फिर संत और सेवक कहलाने का श्रेय उनको मिलता है। एक बात स्पष्ट है कि अध्यात्म और इस दिखावे की भक्ति में बहुत अंतर है। अध्यात्मिक भक्ति से आशय यह है कि वह आपके हृदय में स्थाई रूप से रहना चाहिए और आपको बाहर से किसी की प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती। जब बाह्य प्रेरणा से अपने अंतर्मन में भक्ति भाव पैदा होता है तो वह उसके परे हटते ही विस्मृत हो जाता है। यह आश्चर्य की बात है कि विश्व का सबसे स्वर्णिम अध्यात्म ज्ञान के सृजक संतों,ऋषियों, मुनियों और संतों के देश में सर्वाधिक भ्रमित लोग रहते हैं। इसे हम कह सकते हैं कि कांटों में ही गुलाब खिलता है और कमल को कीचड़ धारण करता है। भारतीय मनीषी शायद जीवन के रहस्यों को इसलिए भी जान पाये क्योंकि भ्रम और अंधविश्वासों के बीच जीने वालों की संख्या यहां प्रचुर मात्रा में है और वही उनके प्रेरक बनते रहे हैं। फिर दिया तले अंधेरा वाली बात नहीं भूलना चाहिए। यहां अध्यात्म-योग साधना, श्रीगीता का संदेश, कबीर, तुलसी, रहीम, चाणक्य, भृतहरि आदि मरीषियों रचनाएं-पूरे विश्व को चमत्कृत कर रहा है पर यहां अज्ञानता और अंधविश्वास भी उतना ही बढ़ता जा रहा है।
समाधि से जीवन चक्र स्वतः ही साधक के अनुकूल होता है-पतंजलि योग सूत्र
(samadhi chenge life stile)Patanjali yog)
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*समाधि से जीवन चक्र स्वतः ही साधक के अनुकूल होता
है।-------------------योगश्चित्तवृत्तिनिरोशःहिन्दी में भावार्थ -चित्त की
वृत्तियों का निरोध (सर्वथा रुक ज...
3 वर्ष पहले
1 टिप्पणी:
आपने सही कहा है कि "यहां अध्यात्म-योग साधना, श्रीगीता का संदेश, कबीर, तुलसी, रहीम, चाणक्य, भृतहरि आदि मरीषियों रचनाएं-पूरे विश्व को चमत्कृत कर रहा है पर यहां अज्ञानता और अंधविश्वास भी उतना ही बढ़ता जा रहा है।"
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