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1/01/2008

क्या इतिहास हमेशा सत्य बोलता है

क्या इतिहास में हमेशा सच लिखा होता है? मेरा मानना है कि बिलकुल नहीं। अपने सामने ही जब कई ऐसी घटनाएँ देखता हूँ और फिर जब उनकी प्रस्तुति लेखन के रूप में होती है तो यह साफ लगता है कि उनमें कुछ तो तथ्यों को तोडा मरोडा जाता है तो कुछ उसमें ऐसे मिलाया जाता है कि वह लिखने वाले के तथ्यों को सही माने। अगर लिखने वाला पूर्वाग्रही हुआ तो उसके शब्द वैसे ही आगे जायेंगे जैसा वह चाहता है। साथ ही यह भी मानना पड़ेगा के लिखने वाले अधिकतर पूर्वाग्रही होते ही हैं।

अधिक दूर जाने की क्या जरूरत है। अभी बेनजीर की हत्या को ही लें। जो सामान्य लेखक लिख रहे हैं वह किसी संग्रहालय में नहीं रखा जायेगा न उसे कोई आगे ले जाने के लिए कोई संस्था है न प्रकाशक। उसमें तो वही बात दर्ज होने वाली है जो वहाँ की सरकार दर्ज कराएगी। सब जानते हैं कि उसकी मौत गोली लगने से हुई पर इतिहास में दर्ज होगा कि उसकी मौत अपनी कार से सिर टकराने से हुई। यह बात सरकारी अभिलेखों में होगी और आज से चार सौ साल बाद भी इसे इसी रूप में पढा जायेगा तब कोई प्रत्यक्षदर्शी नहीं होगा सच बयान करने के लिए।
इस सबको देखते हुए तो यही लगता है कि पुराने लिखे को पढ़ना चाहिए तो केवल वैचारिक और तकनीकी विषयों पर ही दृष्टिपात करना चाहिए न कि तथ्यात्मक घटनाओं का अध्ययन करना चाहिए। मैंने इतिहास में बहुत सारे विरोधाभास देखे हैं और साथ ही उसमें किन्हीं नायकों को गढ़ने के लिए जिस तरह उन्हें चमत्कारी और नैतिकतावान बताया जाता है वह सामान्य मानवीय देह से मौजूद कमियों से दूर लगता है, जबकि मानवीय देह में मन, बुद्धि और अंहकार ऐसे तत्व हैं जो उसे कभी न कभी गलतियां करने को मजबूर करते हैं, अत कोई भी मानवीय देह धारण करने वाला व्यक्ति हमेशा नैतिक और वैचारिक मोर्चे पर हमेशा अजेय नहीं हो सकता है और इतिहास लिखने वाले अपने पात्र को ऐसा ही प्रदर्शित करते हैं।

1 टिप्पणी:

राजीव तनेजा ने कहा…

पहले भी अपने मन मुताबिक...अपने फायदे मुताबिक तथ्यों को तोड मरोड के पेश किया जाता रहा है...आज भी यही हो रहा है और आने वाले समय में भी यही होने की उम्मीद है....

जहाँ ढाल होती है वहीं बैंगन रूपी इतिहासकार लुढक लेते हैँ

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