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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

6/01/2007

उन्हें सात पीढ़ियों की रोटी पकानी है

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उनकी सोच है कि
इधर लगाओ या उधर
कहीं भी बस आग लगाओ
किसी तरह अपनी रोटी पकाओ
इन्सान को इन्सान से रगड़ कर
ऎसी लगाओ आग
कि कोई उसे बुझा न सके
शोले ऐसे जलें कि
कि कोई कोम न बच सके
आने वाली सात पीढ़ियों की
किसी तरह रोटी पकानी है
बहुत देर जलती रहे
ऎसी आग लगाओ
मतलब देश से नहीं
समाज से कोई वास्ता नहीं
अपने घर भरने हैं
अपने महल सजने हैं
जहां मौका मिले
वहीं आग लगाओ

---------------
वह तुम्हें अँधेरे का भय दिखाते हैं
और तुम्हारे घर का रोशन
चिराग आंदोलन के लिए उधार लेकर
अँधेरा किये जाते जाते हैं
उसी चिराग से वह दुसरे घरो में
जाकर आग लगाते हैं
ठहर जाओ यारो
कुछ सोच लो प्यारो
इन बहुरूपियों को पहचानो
यह दिल बहलाने वाले नहीं
बल्कि तुमसे आग उधार लेकर
तुम्हें जलाने आते हैं
तुम इन्हें पहचानों
यह इंसानों के भेष में
शैतान आते है
-----------

3 टिप्‍पणियां:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

दीपक जी,बहुत सटीक रचना लिखी है। आज को दर्शाती बहुत सुन्दर रचना है।बधाई\

ghughutibasuti ने कहा…

बहुत सही लिखा है आपने ।
घुघूती बासूती

Sajeev ने कहा…

इन्सान को इन्सान से रगड़ करऎसी लगाओ आगकि कोई उसे बुझा न साके...
बहुत ख़ूब

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