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5/24/2007

अल्फाजों का समन्दर उफनता आने दो

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तुम रास्ते से हट जाओ
अपने ज़ज्बातों को बहकर आने दो
अल्फाजों का समंदर है अन्दर
उसे उफनते आने दो
कहने की कोशिश ना करो
शेरों को बाहर खुद आने दो
जो कोशिश की तुमने उन्हें
भाषा की जंजीरों से बाँधने की
वह पालतू हो जायेंगे
अपने मायने खो जायेंगे
तुम उन्हें आज़ाद बाहर आने दो
शब्दों में सौन्दर्य नहीं ढूंढ़ना
मतलब की खोज न करना
अल्फाजों को ज़ज्बातों से
खुद-बखुद जुड़ जाने दो
कविता और शेर लिखे नहीं जाते
खुद चले आते हैं
तुम रास्ता छोड़कर खडे हो जाओ
उन्हें बाहर आने दो
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कई बार सोचता हूँ कि
लिखना बंद कर दूं
अपने ज़ज्बातों से नज़रें फेर लूं
पर ऐसा नहीं कर पाता
गम हो या ख़ुशी
लिखने चला आता
फिर सोचता हूँ कि मैं खुद
कहॉ लिखता हूँ
यह तो अल्फाजों का समंदर है
जो ज़ज्बातों के तूफ़ान के साथ
बहकर बाहर आता
अब उन्हें रोकने की
कोशिश करना छोड़ दीं है
अपनी कविता के साथ इतना
रास्ता तय कर लिया
जो खुद नहीं कर पाता
मेरे शेर मन के पिंजरे से
जब भी बाहर आते
मैं खामोश रह जाता
-----------------

5 टिप्‍पणियां:

अभिनव ने कहा…

Namastey Deepakji, Please send your email address to my id, shukla_abhinav at yahoo.com.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

कविता इसी को कहते हैं।सुन्दर रचना है।

बेनामी ने कहा…

हम हट गये। अच्छा है!

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत अच्छे, बहाओ!! बढ़िया लिखा है.

Gaurav Pratap ने कहा…

दीपक जी
दिल को छूने वाली रचना थी.

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