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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

6/26/2007

अपनों से बढती दूरी का दर्द

आजकल जिसे देखो अपने लोगों-यानी अपने रिश्तेदारों , परिचितों, मित्रों और परिवार -पर यकीन नहीं करता । हालत यह है जो भाई बहिन साथ-साथ पलते हैं उनको भी एक दुसरे पर विश्वास तभी तक रहता है जब तक एक ही छत के नीचे हैं और घर से बाहर होने या विवाह होने पर सब कुछ बदल जाता है और रिश्ते बस नाम भर के रह जाते है।

हम अपने देश की संस्कृति और संस्कारों पर गर्व करते हैं वह उन्हीं पारिवारिक और सामाजिक संबंधों पर करते हैं जो अब एक तरह से अपना आभा मंडल खो चुके हैं या खोते जा रहे हैं । कोई अपनी तकलीफों को बयान नहीं कर पाता पर अपनों से बदती भावनात्मक दूरी का दर्द सभी को है। जब फोन जैसी सुविधाएं नहीं थी तब लोग बरसों तक एक दुसरे से बातचीत नहीं कर पाते थे तब लोगों में भावनात्मक लगाव और विश्वास अधिक हुआ करता था पर जब संबंध रखने और बातचीत करने के नए और तीव्रतर साधन उपलब्ध हो गये हैं तो लोगों में आपसी लगाव और विश्वास इस क़दर कम हो गया है कि रोज मोबाइल पर बातचीत करने वाले लोग भी एक- दुसरे पर विश्वास करते हैं -ऎसी आशा नहीं की जा सकती। परिवहन के साधन जब धीमे और उबाऊ थे तब लोग एक-दुसरे के पास बड़ी श्रध्दा, प्रेम और मन में उमंगता का भाव लेकर जाते थे और आज जब अति तीव्रगामी साधन उपलब्ध हो गये हैं लोगों का एक-दुसरे का यहाँ जाना मात्र ओपचारिकता भर रह गयी है-शादी विवाह के अवसर पर लोग बहुत उत्साह से शामिल होते थे पर बदलते समय ने इसे एक मजबूरी बना दिया है , आख़िर ऐसा क्या हुआ कि यह सब बदल गया और समाज जो कभी अपने श्रेष्ठता का दंभ भरता था आज एकदम खोखला हो गया - यहाँ हम इस बात को नहीं भूल सकते कि हम भी किसी न किसी के अपने है और जब हम अपनों पर कोई आक्षेप करते हैं तो वह हम स्वयं पर भी कर रहे हैं ।

हम यहां किसी पर आक्षेप नहीं करना चाहते बल्कि ईमानदारी से उन परिस्थतियों का अवलोकन करना चाहते हैं कि अपना आख़िर अपने से दूर क्यों हो गया और अब उसे कैसे पास रख कर विश्वसनीय बनाया जा सकता है ।

जब आधुनिक साधन और व्यवस्था नहीं थी तब व्यक्ति की व्यक्ति पर निर्भरता अधिक थी इसीलिये संपर्क बनाए रखना न एक बाध्यता बल्कि एक सामाजिक जरूरत भी थी । पहले घर में होने वाले कार्यक्रमों के लिए कामकाज के लिए लोगों की जरूरत होती थी और उस समय नाते-रिश्तेदार और आस-पड़ोस के लोग ख़ूब सहयोग करते थे और अब नवीनतम सुख-सुविधाओं और सेवाओं की बाजार में उपलब्धता ने आदमी को आत्मनिर्भर बना दिया और अब वह पैसा खर्च कर अपने काम करा लेता है। शादी के अवसर पर रिश्तेदार पन्द्रह-पन्द्रह दिन पहले पहुंचते थे ताकि काम में सहयोग किया जा सके। लडकी की शादी में रिश्तेदार बारात के स्वागत के लिए जीजान लगा देते थे। अब इस काम के लिए हलवाई बरात के स्वागत का भी ठेका लेने लगे हैं और जिनके पास पैसा है वह होटलों की सेवाएं लेते हैं जहाँ वेटर स्वागत का काम करते हैं।
अब तो शादी ब्याह में यह पता ही नहीं लगता कि लडकी के रिश्तेदार कौन हैं और लड़के के कौन? कुल मिलाकर आदमी का आदमी में स्वार्थ अब कम हो गया है । यहां किसी प्रकार के अध्यात्म की बात करना ठीक नहीं होगी। कुछ लोग कहेंगे कि ऐसे संबंधो का क्या मतलब जिसमें स्वार्थ हौं , तो पहले यह समझना होगा कि दैहिक स्वार्थ ही दो देहों के संबंध मजबूत रखते हैं -और हम इस तथ्य को तर्क की कसौटी पर नही कसेंगे तो किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचेंगे और बात अधूरी रह जायेगी ।कुल मिलाकर बात यह कि घरेलू कर्यकर्मों में अपने लोगों की भागेदारी अब नाम मात्र की रह गयी है और इस कारण लोगों में आत्मीयता के भाव में कमी आ गयी है और रिश्ते निभाये नहीं बल्कि घसीटे जा रहे हैं अब भाई में भात्रत्व , मित्र में मैत्री, और सहयोगी में सहकारिता का भाव ढूँढना बेमानी लगता है। कहीं कहीं विपरीत स्थति भी है कि लोग अपनों से ही हानि की आशंका से भी त्रस्त हैं। इस घोर अविश्वास और हानि कि भावना ने आदमी को बौद्धिक रुप से खोखला कर दिया जहां निराशा, मानसिक तनाव और अकेलेपन की भयानक अनुभूति के साथ जीता है ।

हमारा किसी में काम नही पडेगा यह बात जहाँ आत्मविश्वास देती है वहीं हममें किसी का काम नहीं पडेगा यह उसे बुरी तरह तोड़ती भी है । अकेले होने पर इतना भय नहीं होता जितना परिवार और रिश्तेदारों के होते अकेलेपन का होता है ।हम किसी दुसरे व्यक्ति या समाज को सुधारने की बात करें उससे कुछ होने वाला नहीं है बल्कि हमें अपनी मानसिकता सुधारने की बात करना चाहिऐ , भले ही कम छोटा क्यां न हो हमें अपनों से उसके लिए कहना चाहिए क्योंकि हम जरा अपने अन्दर झाँकें कोई हमेंकिसी खास अवसर पर कोई काम कहता है तो हम खुश होते हैं या नहीं। मतलब यह कि दूसरों के स्वार्थ भी सिध्द करो और अपने भी स्वार्थ उसमे जानबूझकर फसाओ ताकि रिश्तो की निरन्तरता बनी रहे ।

कविवर रहीम कहते हैं -

"आवत काज रहीम काहिन् , गाढ़े बंधू सनहे
जीर होत न पेड ज्यों, थमे बरेह

विपत्ति के समय अपने घनिष्ठ बंधुओं का स्नेह काम आता है । जैसे पेड सा पराने होने पर उसकी लकड़ी के गट्ठे की मोटी रस्सी पेड को थाम लेती है और पेड की डालियों से निकलने वाली शाखाएं जमीन में जा बड़ा पकड लेती हैं।हमें अपनों में अपना स्नेह और प्रेम बनाए रखना चाहिए क्योंकि इससे हमारा ही आत्मविश्वास बढता है । वह लोग क्या सोचते और करते हैं यह उनका काम है।

कविवर रहीम यह भी कहते हैं कि

"दुर्दिन परे रही कहिन्न , भूलत: सब पहिचानी
सोच नही वित हानि को, जो न होय हित हानि"
जीवन में बुरे दिन आने पर सब लोग भी पहचानना भी भूल जाते हैं। ऐसे समय में यदि अपने मित्र तथा सगे संबंधी न भुलाएँ तो धन की हानि का विचार मन को इतनी पीडा नहीं पहुँचाता।

रहीम ने आज से कई बरस पहले भी ऎसी हालतों का सामना किया तभी अपने लोगों की उपेक्षा का भाव झेलने का दर्द वह व्यक्त कर पाए। अपने लोगों की सहायता के लिए हमें हमेशा तैयार रहना चाहिए पर उनसे कोई आशा नहीं करना चाहिऐ तभी स्वयं बेचारगी के भाव से मुक्त हो पायेंगे जो अपनों से दूर होने केकारण हमारे अन्दर उत्पन्न होता है।

5 टिप्‍पणियां:

Sajeev ने कहा…

बहुत अछे विचार हैं आपके.... मैं पूरी तरह सहमत हूँ

Sajeev ने कहा…

बहुत अछे विचार हैं आपके.... मैं पूरी तरह सहमत हूँ

Sajeev ने कहा…

बहुत अछे विचार हैं आपके.... मैं पूरी तरह सहमत हूँ

ghughutibasuti ने कहा…

एक महत्वपूर्ण विषय पर लिखा है । किन्तु विषय इस सबसे अधिक जटिल है ।
घुघूती बासूती
PS : if u want ppl with poor eye sight to comment then pl do not make word verification so tough.
thanks
gb

Divine India ने कहा…

समाज में जैसे-2 जटिलता आ रही है वैसे-2 हम स्वयं से ही दूर होते जा रहे हैं तो अन्य के लिए तो औपचारिकता भी नहीं बचती…। आपके विचार उत्तम हैं!!

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