वाणी से ढेर शब्द बरसाते हैं,
अर्थ समझाने से तरसाते हैं।
कहें दीपकबापू खाने के शेर
लड़ने में चूहे जैसे बन जाते हैं।
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आंखों में सपनों के झूले हैं,
हाथ पांव सच से फूले हैं।
कहें दीपकबापू भंवर में जिंदगी
डूबते तैरते भक्ति से भूले हैं।
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सब अपनी जिंदगी जी लेते हैं,
अपने हिस्से सुख दुःख पी लते हैं।
‘दीपकबापू’ क्यों हैं फिक्रमंद
सब अपने फटे दिल सी लते हैं।
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भावना व्यापार पर लोकतंत्र टिका है,
अनमोल मत वादे के मोल बिका है।
कहें दीपकबापू सेवक उपाधि है
ठाठबाट राजाओं जैसा दिखा है।
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बेहिसाब दौलत से हुए न्यारे,
घूम रहे आंकड़ों के गलियारे।
कहें दीपकबापू भ्रमजाल में फंसे
मैं का सुर अलाप रहे बकरे प्यारे।
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राजा जैसी चाल नाम सेवक धरे,
बड़ा खास वह जो करचोरी करे।
‘दीपकबापू’ ठहरे जो आमजन
लाचार राजस्व भंडार भरे।।
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