रसायन से चमके उनके चेहरे यूं ही चांद हो जाते, पर्दे पर शेर बनते फिर मांद में खो जाते।
‘दीपकबापू’ सफेद शब्द की लगी नामपट्टिका, नीयत के काले अपना घर भी फांद जो जाते।।
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जनधन पर पहरेदार ही गिद्धो जैसे झपटते, गरीबों घर जाते रोटी के हिस्से ढेर कटते।
‘दीपकबापू’ बरसों से करें जनकल्याण का व्यापार, मित्र भी बिना दिये बिना नहीं पटते।।
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बड़े लोग जो गिरगिट जैसे रंग बदलते, आम आदमी कछूऐ जैसे अपनी छाया में पलते।
‘दीपकबापू’ चेहरे पर होते कभी न फिदा, देखें कौन अपने स्वार्थ से चरित्र चाल चलते।।
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अनुभवी मरीज मर्ज की दवा का प्रचार करते, सब जगह हकीम होने का दंभ भरते।
‘दीपकबापू’ रुग्ण समाज ले रहा कृत्रिम सांस, हवा के झौंके से सबके कदम डरते।।
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राजपद पाने वह दर्द बहुत उठाते, फिर मुफ्त की हमदर्दी जनमानस में लुटाते।
‘दीपकबापू’ प्रसिद्धि से पंचर हुआ दिमाग, काम न करने के ढेर बहाने जुटाते।।
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नदिया की धारा देखने के काम में लगे, वेतन से खुश नहीं बेबस नाविकों को ठगे।
‘दीपकबापू’ ऊपर से नीचे सीढ़े से आये, मिले नहीं भ्रष्टाचारी कभी किसी के सगे।।
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खानपान रहनसहन ऊंचा हुआ उन्हें बड़ा जान, गुलामी के नुस्खे समझें बड़ा ज्ञान।
‘दीपकबापू’ खोपड़ी कर ली सोच से खाली, निरर्थक बात से बढ़ा रहे अपनी शान।।
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