लोकतंत्र में जरूर गण का तंत्र ही दिखता, पर्दे के पीछे पटकथा धनतंत्र ही लिखता।
‘दीपकबापू’ सामने हंसी का खजाना बांटे, दर्द के इलाज में विज्ञापन मंत्र ही बिकता।।
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संदेश शांति का इरादा कमाना होता, भलाई के नाम अपना हित जमाना होता।
‘दीपकबापू’ भावनाओं के बाज़ार में खड़े, वही सफल जो नैतिकता न जाना होता।।
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हाड़मांस का इंसानी बुत महल में पड़ा है, सांस चलती पर दिमाग में पत्थर जड़ा है।
‘दीपकबापू’ नारे लगवाकर तख्त पर बिठाते, पाप पुण्य से अनजान चिकना घडा है।।
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ईमानदारी भी सिक्कों में ही तोली जाती, बाज़ार में हर शय की कीमत बोली जाती।
‘दीपकबापू’ बड़े होकर भी दौलत के गुलाम, कमाई से उनकी काबलियत तोली जाती।।
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धरती सूखी कागज पर बढ़िया राज चले, बस्ती के अंधेरे से महल में रौशनी जले।
‘दीपकबापू’ अपनी रक्षा देव के हाथ में माने, भ्रष्ट पहरेदार चोरों की जेब से पले।।
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पर्दे के उस पार शत्रु का साया बतायें, रक्षा के ठेकेदार हर पल भय आया जतायें।
‘दीपकबापू’ लगे आम दिनचर्या में निश्चिंत, राजकाल की चर्चा फुर्सत की माया जतायें।।
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