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दीपक भारतदीप की हिंद केसरी पत्रिका

11/12/2011

मनुस्मृति के आधार पर संदेश-द्रव्यमय यज्ञ से श्रेष्ठ है जप यज्ञ (manu smriti ke adhar par sandesh-dravya maya yagya se shreshth hai japyagya)

        मनुष्य देह का स्वामी आत्मा है हम भ्रमवश मन को मान लेते है। यह मन बहुत चंचल है। कभी भौतिकता से उकता कर अध्यात्म की तरफ तो कभी एकांत से ऊबकर भीड़ की तरफ देह को भगाता है। तत्वज्ञानी इसकी गति और मति को जानते हैं इसलिये इस पर नियंत्रण किये रहते हैं पर सामान्य आदमी मन को ही ब्रह्मा मानकर उसके अनुसार इधर उधर चलता है। भौतिक संग्रह से आदमी का मन कभी नहीं थकता। यह अलग बात है कि बीच बीच में मन में शांति की चाहत होती है। तब कोई मनुष्य अध्यात्म तो कोई मनोरंजन की तरफ मुड़ता है। मनुष्य की नियमित दिनचर्या के बीच मन की शांति के लिये अनेक तरह के स्वांग भावनाओं के सौदागर रचते हैं। इस तरह मनोरंजन की अनेक विधाओं का निर्माण होता है जिसमें आदमी पैसा खर्च कर मन की विलासिता ढूंढता है। इस तरह अधिकतर लोग मनोरंजन में लिप्त हो जाता है।
         अध्यात्म ज्ञान में नीरसता का बोध होता है जबकि मनोरंजन मन को एक नया रूप देता है इसलिये लोग परिवर्तन के लिये पर्यटन, फिल्म और टीवी और फिल्म पर दृश्य दर्शन तथा संगीत सुनने जैसे कार्यक्रमों को पंसद करते हैं। वह इस सच को नहीं जानते कि अध्यात्म ज्ञान प्रारंभ में भले ही नीरसता का बोध कराता है पर जब वह मनुष्य की बुद्धि धारण कर लेती है तब अपने आसपास मोह माया के जाल में फंसे मनुष्य के स्वांग वास्तविक रूप से देखकर उसे सजीव दृश्य चित्रण का आनंद प्राप्त होता है। यह आनंद किसी फिल्म की काल्पनिक पटकथा से अधिक मनोरंजन देता है क्योंकि कल्पित चित्रण क्षणिक तो सत्य चित्रण अविस्मरणीय होता है। इसके विपरीत छोटे या बड़े पर्दे के काल्पनिक दृश्य अंततः अपना प्रभाव खो बैठते हैं और फिर मन वहीं की वहीं बोरियत के दौर में पहुंच जाता है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि
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एकाक्षरं परं ब्रह्म प्राणायमः परं तपः।
सावित्र्यास्तु परं नास्ति मौनात्सत्यं विशिष्यते।।
           औंकार (ॐ शब्द  ) ही परमात्मा की भक्ति तथा उसे पाने का सर्वाेत्म मार्ग है। प्राणायाम से बड़ा कोई तप नहीं है। सावित्री (गायत्री) से श्रेष्ठ कोई मंत्र नहंी है। मौन रहने से अच्छा सत्य बोलना है।’’
योऽधीतेऽहन्यहन्येतांस्त्रीणि वर्षाण्यतन्द्रितः।
स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूतः खमूर्तिमान्।।
              ‘‘आलस्य का त्याग कर जो मनुष्य तीन वर्षों तक ओंकार तथा सहित तीन चरणों वाले गायत्री मंत्र का जाप करता है वह परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति कर लेता है। उसकी गति वयाु के समान स्वतंत्र हो जाती है। वह कहीं भी आ जा सकता है। वह शरीर की सीमा से परे जाकर आकाश के समान असीम रूप धारण कर लेता है।’’
विधियाजापयज्ञो विशिष्टो दर्शाभिर्गुणैः।
अपांशुः स्याच्छतगुणः साहस्त्रो मानसः स्मृतः।।
         ‘‘विधि के अनुसार यज्ञों से अधिक दस गुना श्रेष्ठ जप यज्ञ है। उपांशु जप तो जप यज्ञ से भी श्रेष्ठ है। मानस जप यज्ञ उपांशु जप यज्ञ से हजार गुना श्रेष्ठ है।’’
          हमारे अध्यात्म ग्रंथों में जहां गंभीर सृजनात्मक संदेश है वहीं उनमें कुछ कथाऐं भी हैं जिनसे मनुष्य के अंदर प्रेरणा का प्रवाह होता है। तय बात है कि उनमें कुछ मनोरंजन का भी पुट है पर देखा गया है कि कथित अध्यात्मिक पुरुष उन्हीं कथाओं और काव्य प्रस्तुतियों को अपनी वाणी से प्रकट करते हैं जिससे मनुष्य का मनोरंजन हो। इतना ही नहीं प्रमाद भी करते हैं। कथित रूप से अनेक अध्यात्मिक समूह और व्यक्ति अपने स्थानों को सिद्ध बताकर वहां लोगों की भीड़ लगाते हैं। सामूहिक यज्ञों में स्वर्ग का सपना दिखाया जाता है। इस कारण भक्ति के नाम पर अनेक लोग भारी कष्ट उठाते हैं। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार शरीर को कष्ट देकर हठपूर्वक भक्ति करना तामस प्रवृत्ति का परिचायक है। फिर भी कथित गीता सिद्ध ऐसे यज्ञों को महायज्ञ कहकर लोगों को पुकारते हैं। धर्म के नाम पर भ्रमित लोग उनकी पुकार पर कष्ट उठाकर चल पड़ते हैं।
मनुस्मृति सहित हम अपने अध्यात्म ग्रंथों का मूल संदेश का अर्थ हम समझें तो उसमें यह स्पष्ट किया गया है कि परमात्मा का नाम स्मरण ही पर्याप्त है। अगर हम भक्ति को कुछ रोचक तथा व्यापक बनाना चाहते हैं तो ओम शब्द और गायत्री मंत्र का जाप करके भी हम शक्ति प्राप्त कर सकते हैं।
वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
http://rajlekh-patrika.blogspot.com

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